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उनका जन्म पंजाब के लहरा गांव में कपूर क्षत्रिय वंश में धर्म श्रद्धालु शूरवीर गणेशचन्द्र की भार्या पतिव्रता शीलगुण सम्पन्ना रुपादेवी की रत्न कुक्षि से हुआ था।
उनके बचपन का नाम आत्माराम था। वे बचपन से ही साहसी थे और उनके साहस की अनेक कथाएं प्रचलित और प्रसिद्ध हैं । दुर्भाग्य से बचपन में ही उन्हें अपने पिता का वियोग सहना पड़ा। उनके पिता ने उन्हें अपने मित्र जोधामलजी के पास रखा, जो लहरा के पास जीरा में रहते थे। जोधामलजी ने अपने मित्र के पुत्र को शिक्षित एवं संस्कारित किया। जोधामलजी स्थानकवासी जैन थे, इसलिए स्थानकवासी साधुओं का आवागमन उनके घर पर होता रहता था। उन साधुओं के संसर्ग में आने से और उनकी वैराग्यमय वाणी सुनने से आत्माराम के मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। और उन्होंने वि. सं. १९१० में जीवनरामजी के पास दीक्षा ग्रहण की । उनका नाम आतमारामजी ही रखा गया।
दीक्षा लेकर वे जैन दर्शन के गहन अध्ययन में संलग्न हो गए। जैसे-जैसे वे आगमों का अध्ययन करते गए वैसे-वैसे स्थान-स्थान पर उन्हें आगम ग्रन्थों में मूर्तिपूजा के पाठ पढ़ने को मिलते गए। इससे उन्हें लगा कि जैनों में मूर्तिपूजा की परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है। किन्तु उनके गुरु और अन्य स्थानकवासी विद्वान लोग इस मूर्तिपूजा को अस्वीकार करते थे। जिससे आत्मारामजी का मन अनेक शंका-कुशंकाओं से धीरे रहता था। वे अपनी शंकाओं का समाधान पाने के लिए अनेक विद्वान गृहस्थों एवं साधुओं के पास गए। पर कहीं पर भी उन्हें अपनी शंकाओं का समाधान नहीं मिला।
एक बार वे रत्नचंदजी महाराज के पास आगरा में गए। वहां उन्होंने कुछ शास्त्रों का अध्ययन किया । मुनि रत्नचंदजी से उन्हें अपनी बहुत सी शंकाओं का समाधान मिला। शास्त्रों के अध्ययन के अन्त में आत्मारामजी से उन्होंने कहा- 'जिन प्रतिमा की कभी निंदा मत करना। अपवित्र हाथों से शास्त्रों को मत छूना । हाथ में दंड रखने का विधान है और मुंहपत्ती हमेशा मुख पर बांधे रखने का शास्त्रीय नियम नहीं है। अत: तुम निर्भीक होकर सच्चे जिन धर्म का प्रचार करो। तुम्हारे में क्षमता है, इसलिए कह रहा हूं।
गुरु आत्म को सच्ची और स्पष्ट बात बताने वाला पहला संत मिला। एक बार उन्हें शीलांकाचार्य द्वारा लिखित आचारांग सूत्र की टीका मिली । इसे पाकर उन्हें ऐसा अनुभव हुआ, मानो अमूल्य रत्न मिल गया हो । उससे उन्हें ऐसी-ऐसी बातें ज्ञात हुई जो स्थानकवासी मान्यता से सर्वथा भिन्न थी। आचारांग की इस टीका से उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो गया कि सच्चा जैन धर्म तो मूर्तिपूजा में ही है। उसीके आधार पर उन्होंने भविष्य में नई क्रांति का सूत्रपात कर जैन श्री जिनागम हम मन मान्यो तब ही कुपंथ को जाल जो रे ।।
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