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विधिवत् रूप से जैन धर्म का पालन करने लगे।
एक ईसाई ने 'जैन मत समीक्षा' पुस्तक लिखी थी जिसमें जैन धर्म पर अनुचित आक्षेप किए थे। उस पुस्तका का परिहार श्री विजयानंद सूरि महाराज ने 'ईसाई मत समीक्षा' लिखकर किया।
इधर राजेन्द्र सूरि और धन मुनि ने तीन थुई का अपना नया मत चलाया था। उस तीन थुई का प्रतिवाद उन्होंने 'चतुर्थ स्तुति निर्णय' लिखकर किया।
एक स्थानकवासी मुनि जेठमलजी ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध 'समकित सार' पुस्तक लिखी थी। इसके उत्तर में श्री विजयानंद सूरि महाराज ने “सम्यक्त्व शल्योद्धार' पुस्तक लिखी।
इस तरह उन्होंने हर मोर्चे पर अपनी वीरता दिखाकर विजय के झंडे गाड़ दिए थे और अपना 'विजयानंद' नाम सार्थक कर दिखाया था। निससंदेह उनका विराट और निस्सीम व्यक्तित्व सदियों तक प्रेरणा स्तम्भ बना रहेगा।
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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