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सर्वथा अयोग्य हूँ। और मैंने योगद्वहन भी किए नहीं है। इस पद के लिए जो योग्य हों उन्हें यह पद दिया जाए।
श्रावकों ने कहा कि आपसे बढ़कर हमें योग्य महापुरुष कोई भी दृष्टिगत होता नहीं है। रही बात योगद्वहन की तो श्रीसंघ तीर्थंकर तुल्य माना जाता है। श्रीसंघ की आज्ञा प्रत्येक साधु के लिए स्वीकार्य होती है। और यह कोई एक संघ आपको विनती नहीं कर रहा है सम्पूर्ण भारत के संघ आपको विनती कर रहे हैं। आप श्रीसंघों की विनती को ठुकरा नहीं सकते और इधर यतिलोग चुनौती दे रहे हैं कि हमारे रहते किसकी हिम्मत है कि कोई आचार्य बन जाए। उनकी चुनौती आपको स्वीकार करनी होगी। नहीं तो यह यतियों की विजय मानी जाएगी। आपको आचार्य बनाकर यतियों को हम बता देना चाहते हैं कि अब तुम्हारा यतियुग समाप्त हो गया है। एक अपवाद रूप में और उत्सर्ग मार्ग स्वीकार कर आपको बिना योगद्वहन के ही आचार्य बनना होगा।
श्रीसंघ की विनती स्वीकार करने के लिए वे विवश हो गए। और पालीताणा में वे आचार्य पद पर आसीन हुए।
आचार्य होने के बावजूद वे अपने नव दीक्षित शिष्य-प्रशिष्यों को बड़ी दीक्षा नहीं देते थे। उन्होंने अपने बड़े शिष्यों से योगद्वहन करवा लिए थे। जिन्होंने योगद्वहन कर लिए थे उन्हीं के हाथों से वे सभी शास्त्रीय क्रिया अनुष्ठान सम्पन्न करवाते थे।
श्रीमद् विजयानंद सूरि महाराज कलिकाल में तीर्थंकर तुल्य पंचपरमेष्ठि के तृतीय पद आचार्य का मूल्य समझते थे इसीलिए उन्होंने अपने जीवनकाल में किसी को आचार्य पद नहीं दिया। ऐसा नहीं था कि उनके विशाल शिष्य परिवार में कोई इस पद के योग्य नहीं था। योग्य थे और सर्वथा योग्य थे फिर भी वे आचार्य पद की भविष्य में गरिमा कम न हो वह रेवड़ियों की तरह बाजार में बिकने न लगें उसी का ध्यान रखते हुए उन्होंने किसी को आचार्य नहीं बनाया। उनका मानना था कि गुरु की बजाय श्रीसंघ स्वयं यह निर्णय करें कि आचार्य पद के योग्य कौन है और कौन नहीं है। वह भी किसी एक नगर के श्रीसंघ को यह जिम्मेवारी नहीं सौंपी जा सकती । समग्र भारत के श्रीसंघ मिलकर यह निर्णय करें।
यदि गुरु अपने शिष्य को आचार्य पद देगा तो योग्यता ही कारण होगा यह विश्वसनीय नहीं हो सकता । योग्यता को परे रखकर गुरु अपने शिष्य मोह के कारण भी तो आचार्य बना सकता है। गुरु अपने शिष्य के दबाव में आकर भी तो आचार्य पद देने के लिए मजबूर हो सकता
साधुता के शिखर
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