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और अपनी जिम्मेवारी से छूट जाना अनुचित है । हम जिन महात्मा की जयन्ती मना रहे हैं । वे महात्मा पंचमकाल-कलियुग के थे या चतुर्थकाल- सत्ययुग के थे । हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि, वे भी पंचम काल ही के थे । अन्तर इतना ही है कि, उन्होंने अपने बल को प्रस्फुटित किया था और हम नहीं करते। उनका जीवन धन्य हो गया और हमारा नहीं ।
महानुभावों ! स्वर्गीय आचार्य महाराज में गम्भीरता कैसी थी और उसके कारण वे अपने सामने आने वाले उद्धत से उद्धत मनुष्य को भी कैसे शान्त कर देते थे और कैसे उसके हृदय पर अपना प्रभाव जमा देते थे । उसके एक दो उदाहरण मैं तुम्हें दूँगा ।
मालेरकोटले में एक मुल्ला सृष्टि रचना के संबंध में प्रश्न करने के लिए आचार्य श्री के पास आया । चर्चा में वह बराबर उत्तर न दे सका, इस लिए एक तो मुसलमान, फिर मुल्ला और मुसलमानी राज्य । मुल्लाजी का मिजाज गरम हो गया । सत्य है झूठे पड़े को कोई उत्तर न मिले तो क्रोध करके लड़ने के सिवा दूसरा क्या करे, तो भी आचार्य श्री ने शान्त भाव से कहा :“मुल्लाजी ! गुस्सा न करो। हम काफिर तो काफिर ही सही, मगर क्या एक बात का उत्तर दोगे !”
मु. शौक से ।
आ.- हिन्दुओं को जिन्हें आप काफिर बताते हैं- बनाने वाला कौन हैं ? अपने धर्म के अनुसार बताना हमारी मान्यता की तरफ न देखना ।
मु.- इसमें कौनसी बात है ? जब कुल कायनात (सृष्टि) को बनाने वाला खुदा है, तब हिन्दुओं को बनाने वाला भी खुदा ही है ।
आ.- अच्छा मुल्लाजी जरा सोचिए कि, जिन हिन्दुओं को तुम काफिर कहते हो उन हिन्दुओं को खुदाने क्यों बनाया? क्या वह जानता नहीं था कि ये काफिर मुझसे खिलाफ चलेंगे ।
मुल्लाजी शान्त हो गये और थोड़ी देर के बाद “ फिर हाजिर होऊँगा" कह कर चले गये । बाहर जाकर लोगों से कहने लगे, - “बेशक ! इनके साथ मेरा मत नहीं मिलता, मगर यदि कोई सच्चा फकीर हो तो ऐसा ही हो, दुनिया की परवाह नहीं, मगर फरेब - दगाबाजी से दूर, खुश मिजाज़ सरल स्वभाववाला, गम्भीर और सच्चा हो ।”
महाशयों ! देखा आपने कि मुसलमान भी पीठ पीछे गुण गाने लगा। यह फल किसका है ? यह है गम्भीरता और समझाने के उत्तम ढंग का ।
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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