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इनके ग्रन्थों में जो मध्यस्थता, गम्भीरता और सत्यप्रियता दृष्टिगोचर होती है वह अन्यत्र कदाचित् ही दिखाई पड़ती है। उनके व्यक्तित्व में रही हुई अलौकिक ज्ञानविभूति से प्रभावित हुए तदुत्तरवर्ती आचार्यों ने- श्री सिद्धर्षि, श्रीजिनेश्वरसूरि, श्रीवादिदेवसूरि, श्रीलक्ष्मणगणि आचार्य, श्रीमलयगिरि, श्री प्रद्युम्नसूरि उपाध्याय, श्री यशोविजयजी आदि विशिष्ट विद्वानों ने इनके विषय में श्रद्धापूरित हृदय से जो भक्तिभाव प्रकट किया है, उसको देखते हुए तो उनके वचनों पर हमारा विश्वास और भी सुदृढ हो जाता है । अस्तु अब हम पूज्य हरिभद्रसूरि के प्रस्तुत विषय से सम्बन्ध रखने वाले विचारों का अतिसंक्षेप से दिग्दर्शन कराते हैं ।
पूज्य हरिभद्रसूरि ने अपने सद्ग्रन्थों में द्रव्यस्व और भावस्तव अर्थात् द्रव्य और भावरूप से प्रतिमा पूजन को विपुल स्थान दिया है वे स्तवविधि—पूजाविधि आगमशुद्ध२ और विहितानुष्ठान३ मानते हैं यह स्तव-पूजा द्रव्य और भाव भेद से दो प्रकार का है। द्रव्यस्तव और भावस्तव । इसी का दूसरा नाम द्रव्यपूजा और भावपूजा है। इनमें द्रव्य पूजा का अधिकारी गृहस्थ है और भाव पूजा का अधिकार साधु को है । परन्तु सूत्रोक्त विधि४ के अनुसार अनुष्ठान किया गया यह द्रव्यस्तव भावस्तव का कारण होता है । अत:
गृहस्थ के प्रतिदिन के धार्मिक कर्तव्यों में आचार्य हरिभद्र ने इसे द्रव्यस्तव को मुख्य स्थान दिया है और मुमुक्षु गृहस्थ के लिये आगमोक्त विधि के अनुसार अप्रमत्त भाव से इसके अनुष्ठान का आदेश दिया है। इसके अतिरिक्त द्रव्यस्तव और भावस्तव—द्रव्यपूजा और
(इ) जीतकल्प और उसके भाष्य के निर्माता की जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण है, और विशेषावश्यक भाष्य भी इन्ही की ही रचना है। जन परम्परा में इनके व्यक्तित्व को इतना उच्च स्थान प्राप्त है कि इनके वचनों को उत्तरवर्ति आचार्यों ने आगमों की समान कक्षा में स्थान दिया है। जैन पट्टावलि के अनुसार इनका समय वीर निर्वाण से १११५ (वि.सं. ४५५) आंका जाता है।
१. छाया-कार्या जिनादिपूजा, परिणामविशुद्धिहेतुतो नित्यम् ।
दानादय इव मार्गप्रभावनातश्च कथनमिव ।। २. द्रव्यस्तव: पुष्पादिभि: समभ्यर्चनम् (हरिभद्रसूरि आ. वृ. ४९२)
३. उदायी अजातशत्रु कोणिक का उत्तराधिकारी था। उसका जन्म विक्रम पूर्व ४७८ में हुआ। वीर निर्वाण के समय उसकी आयु ८ वर्ष की थी। विक्रम पूर्व ४३८ तथा वीर निर्वाण ३२ में राज्याभिषेक और वि. पूर्व ४१० तथा वीर निर्वाण ५० में स्वर्गवास हुआ।
_ जैन परम्परा के प्राचीन इतिहास से जाना जाता है कि जैन राजाओं का यह नियम था कि जहां कहीं पर वे नवीन नगर या कोट आदि का निर्माण करते वहां साथ ही जिनमन्दिर की स्थापना भी कराते। इसके लिये कांगड़ा, जैसलमेर और जालोर (मारवाड़) आदि के प्राचीन दुर्गवर्ती जिन मन्दिर आज भी उदाहरण रूप में मौजूद हैं।
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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