________________
बृहत्कल्प भाष्य१-वृहत्कल्प भाष्य की निम्न लिखित गाथा में अदृष्टपूर्व युगप्रधान आचार्यों तथा विशुद्ध संयमी श्रुत सम्पन्न साधुओं एवं पुराने और नये चैत्यों-प्रतिमाओं को वन्दनार्थ जाने का उल्लेख है
“अपुव्वविवित्तबहुस्सुआ य परियारवं च आयरिया।
परिवार वज्जसाहू, चेइय पुव्वा अभिनवा वा"। (२७५३ पृ. ७७६) यहां पर उल्लेख किये गये पुरातन और नवीन चैत्यों का अर्थ पुरानी और नई जिन प्रतिमायें ही संभव हो सकता है । टीकाकार ने भी यही अर्थ किया है
"चैत्यानि पूर्वाणि वा चिरंतनानि जीवंत२ स्वामिप्रतिमादीनि अभिनवानि तत्कालकृतानि-एतानि ममादृष्टपूर्वाणिम इति बुध्या तेषां वन्दनाय गच्छति” अर्थात् यहां पुरातन से जीवंत स्वामी की प्रतिमा आदि को समझना और अभिनव से उस समय की प्रतिष्ठित प्रतिमायें
१. बृहत्कल्पभाष्य के रचयिता युगप्रधान आचार्य संघदास गणि क्षमाश्रमण हैं। इनका समय विक्रम की सातवीं शताब्दी के पूर्व है और ये जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण से कुछ प्राचीन हैं। पंचकल्पभाष्य और वसुदेव हिण्डी ये दोनों इन्हीं की कृतियां हैं । (जैन सा. का इतिहास ६.१४१)
२. जीवंत स्वामी नाम की तीर्थंकर प्रतिमा का प्राचीन जैनग्रन्थों में अनेक जगह उल्लेख पाया जाता है, उनके देखने से वह अत्यन्त प्राचीन प्रमाणित होती है । निशीथचूर्णि कल्पचूर्णि और आवश्यकचूर्णि के उल्लेखों से सिद्ध होता है कि, आचार्य महागिरी तथा आचार्य सुहस्ति श्री जीवंत स्वामी की प्रतिमा के वादनार्थ विदिशा और उज्जयनी में गये।
यथा(क) अण्णया आयरिया विति दिसे जिय पडिमं वंदियागता (निशी. चू. पृ. १९१)
(ख) दोविजणा वितिदिसंगया, तत्थ जियपडिमं वंदित्ता अज्ज महागिरी एकच्छं गया गयग्ग पद वंदया XXX सुहत्थी उज्जेणि जियपडिमं वंदियागया (आ. चूर्णि)
(ग) “इत्तो अज्जसुहत्थी उज्जेणि जियसामि वंदओ आगओ" (कल्पचूर्णि) आर्यमहागिरी और आर्य सहस्ति ये दोनों आर्य स्थूलभद्र के हस्तदीक्षित शिष्य हैं। इनकी दीक्षा वीर निर्वाण १९१ और २२१ में तथा युग प्र.
२१५ और २४५ से हआ (वीरनि. सम्वत और जैनकालगणना प.६३) इससे साबित होता है कि विक्रमपूर्व तीसरी शताब्दी से भी बहुत पहले जीवंत स्वामी नाम की तीर्थंकर प्रतिमा जैन परम्परा में विशेष प्रख्यात थी । अतएव दूर दूर से भाविक गृहस्थ तथा संभावित मुनिवर्ग उसके दर्शनार्थ आते थे। इसका सबूत वसुदेव हिण्डी के निम्न लिखित कथांश से भी मिलता है
"तेण सत्थेण समं बहसिस्सिणीपरिवारा जिणवयणसारदिपरमत्था सव्वया नाम गणिणी जीवंतसामिवंदिया वच्चइ.” (पृ. ६१)
अर्थात् संघ के साथ अनेक शिष्याओं से परिवृत्त जिन प्रवचन के परमार्थ को जानने वाली सुव्रता नाम की गणिनी प्रवर्तिनी जीवन्त स्वामी को वन्दना करने के लिये उज्जयिनी को जा रही थी।
१८६
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org