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गुरूजनों से शिल्प आदि सीखने पर, वस्त्र, भोजन, माला, आदि से उनका सम्मान, सत्कार करनाउनके कथनानुसार वर्तन करना-शिष्य अपना कर्तव्य समझता है। तो जिन गुरूजनों से शिष्य जीवन-निर्माण और आत्म-विकास की शिक्षा प्राप्त करता है, उनका सत्कार सम्मान करना, विनय करना और उनका आदेश पालन करना तो परम सौभाग्य का कार्य मानें । गुरूजनों की आज्ञा सदा शिरोधार्य करना ही चाहिए।
दशवैकालिक की वृत्ति से यह स्पष्ट होता है कि विद्याध्ययन सम्पन्न होने पर छात्र के माता-पिता तथा छात्र गुरूजनों, आचार्यों को भोजन, वस्त्र, अर्थदान, प्रीतिदान आदि द्वारा सम्मानित करते थे । राजा द्वारा उनके जीवन भर की आजीविका का प्रबंध भी किया जाता था।
अन्तकृद्दशा सूत्र में अणीयस कुमार का विद्याध्ययन पूर्ण होने पर नाग गाथापति कलाचार्य का सम्मान करता है
...ते कलायरियं मधुरे हिं वयणेहिं विपुलेणं वत्थ-गंध मल्लालेकारेणं सक्कारेंति, सम्माणेति. . . विपुलं जीवियारिह पीइदाणं दलयंति. . .
(३/१) अणीयस कुमार के माता-पिता कलाचार्य का मधुर वचनों से सम्मान करते हैं, विपुल वस्त्र गंध माला, अलंकार (आभूषण) प्रदान कर सत्कार और सम्मान करते हैं, तथा सम्मानपूर्ण जीविका योग्य विपुल प्रीतिदान देते हैं।
इस प्रकार देखा जाता है कि प्राचीन काल में विद्यादाता गुरूजनों का समाज में सर्वाधिक सम्मान और सत्कार किया जाता था। और जीवन निर्वाह की कोई समस्या उन्हें चिन्तित नहीं करती थी।
विद्यार्थी जहां गुरूजनों के प्रति समर्पित होता था, वहां गुरूजन भी विद्यार्थी के प्रति मातृवत् वात्सल्य रखते थे। गुरू-शिष्य के सम्बन्ध पिता-पुत्र की भांति मधुर और स्वार्थ रहित-आत्मीय होते थे। दशवैकालिक में बताया है- जो शिष्य गुरूजनों को विनय, भक्ति एवं समर्पण भाव से प्रसन्न करता है, गुरूजन भी उसे उसी प्रकार योग्य मार्ग में नियोजित करते हैं, जैसे पिता अपनी प्यारी पुत्री को योग्य कुल में स्थापित करता है ।।
इस सन्दर्भ में आचार्य विनोबा भावे का यह कथन भी बड़ा सटीक है—“गुरू-शिष्य के बीच माता और पुत्र जैसा मधुर सम्बन्ध होना चाहिए। माता बालक को स्तनपान कराती है तो १. दशवै. ९/२/१४-१५, जिनदास चूर्णि पृ. ३१४, दसवैआलियं, पृ. ४३९ १५४
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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