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१. गुरूओं के आने पर खड़ा होना २. हाथ जोड़ना ३. गुरूजनों को आसन देना ४. गुरूजनों की भक्ति तथा भावपूर्वक शुश्रुषा-सेवा करना विनय के ये चार लक्षण हैं ।१
उत्तराध्ययन में ही कहा है—शिष्य गुरूओं, आचार्यों के समक्ष या अकेले में कभी उनके प्रतिकूल अथवा विरुद्ध न बोलें, न ही उनकी भावना के विपरीत आचरण करें।
गुरूजनों के समक्ष बैठने उठने की सभ्यता और शिष्टता पर विचार करते हुए कहा गया है-शिष्य-आचार्यों के बराबर न बैठे, आगे न बैठे, पीछे से सटकर न बैठे, गुरू की जांघ से जांघ सटाकर न बैठे। गुरू बुलावे तो बिस्तर या आसन पर बैठे-बैठे ही उनको उत्तर न देवें, बल्कि उनका आमंत्रण सुनकर आसन से उठे, निकट आकर विनयपूर्वक निवेदन करे।
उठने बैठने की यह ऐसी सभ्यता है, जो विद्यार्थी के लिए ही क्या, मनुष्य मात्र के जीवन में सर्वत्र उपयोगी होती है । इससे व्यक्ति की सुसंस्कृतता व उच्च सभ्यता झलकती है।
प्रश्न पूछने का तरीका शिक्षाकाल में शिष्य को शास्त्रीय ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान, सभ्यता और शिष्टता पूर्ण आचरण भी आवश्यक है। इसलिए जैन शास्त्रों में विनय के रूप में विद्यार्थी के अनुशासन, रहन-सहन, व्यवहार, बोलचाल आदि सभी विषयों पर बडी सूक्ष्मता से विचार किया गया है और उसके आवश्यक सिद्धान्त भी निश्चित किये गये हैं। गुरूओं से प्रश्न पूछने के तरीके पर विचार करते हए बताया है
आसणगओ न पुच्छेज्जा, नेव सेज्जागओ कया।
१. आणा निद्देस करे, गुरूणमुकवाय कारए । इंगियागार संपन्ने से विणीए त्रि वुच्चइ ॥-उत्तरा. १/२ २. एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो- दशवै. ९/२/२ ३. उत्तरा. १/९ ४. उत्तरा. १/१४ ५. भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतराभासं भासिज्जा।-आचारांग २/३/३
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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