________________
शब्द विद्वानों द्वारा निर्मित हुए। इनको साहित्यिक भाषा में परिष्कृत करके समाविष्ट किया जाता है। इस प्रकार संस्कृत शब्दों का विकृतीकरण या सरलीकरण और विकृत शब्दों का संस्कृतीकरण निरन्तर चलता रहता है । भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र में यही मत प्रतिपादित किया है कि संस्कृत भाषा के शब्दों का ही विकृत एवं परिवर्तित रूप प्राकृत भाषा है
एतदेव विपर्यस्तं संस्कार-गुण-वर्जितम्। विज्ञेयं प्राकृतं पाठ्यं नानाऽवस्थाऽन्तरात्मकम् ॥
नाट्यशास्त्र १७-२ इससे यह सिद्ध होता है कि प्राकृत भाषाएं संस्कृत की ही सीधी वंशज है जो स्थान और काल की दृष्टि से परिवर्तित और परिवर्धित होती रही है। दिक् और काल की दो प्रमुख अवस्थाओं के कारण उनमें विकास की जो अनेक प्रक्रियाएं हुई हैं, उन्होंने उनको संग्कृत से भिन्न बना दिया है। किन्तु प्राकृत भाषा संस्कृत भाषा की भांति ही भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय में संलग्न रही है। इसका अनेकविध प्रयोग हुआ है, जैसे
(i) धार्मिक ग्रन्थों में (ii) साहित्यिक रचनाओं में (iii) अभिलेखों में
धानिक प्राकृत जैन धार्मिक वाङ्मय में प्रयुक्त हुई है। इस भाषा वर्ग में महाराष्ट्री श. त्री, मागधी, आर्ष या अर्ध मागधी प्रमुख है। जैन शौरसेनी में रचित आचार्य कुन्दकुन्द का 'समयसार' इस भाषा में रचित सर्वाधिक प्राचीन एव बहुचर्चित कृति है। जैन शौरसेनी में दिगम्बर जैन धर्म संहिता की रचना हुई। श्वेताम्बर धर्म-संहिता की रचना अर्ध-मागधी में हुई।
साहित्यिक रचनाओं में प्राकृत का प्रयोग महाकाव्यों, गीतकाव्यों एवं कथा साहित्य में मिलता है। नाटकों में महाराष्ट्री, शौरसेनी गधी और उनकी अनेक विधाएं प्रयुक्त हुई हैं। भास, अश्वघोष और कालिदास के नाकों में शौरसेनी, महाराष्ट्री प्राकृत आदि प्रयुक्त हुई हैं। संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त गद्य भागों में प्राकृत बोलियों के बीच शौरसेनी का प्रथम स्थान है। यह बहुश: स्त्रियों, बालकों, नपुंसकों, ज्योतिषियों की भाषा रही है। मागधी प्राकृत का भी संस्कृत नाटकों में प्रयोग हुआ है, जैसे 'मृच्छकटिकम्' में शकार उसके अनुचर स्थविरक, संवाहक, कुंभलिक, वर्धमानक, दोनों चाण्डालों और रोहसेन द्वारा बोली जाती है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत नाटकों में प्राकृत बोलियों के प्रयोग की परम्परा निश्चित रूप से बहुत पुरानी १३६
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org