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डॉ. जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल
संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का अपूर्व सम्मिलन अति पूर्वकाल में हुआ। ये दोनों भाषाएं भारतीय संस्कृति के अभ्युदय में समान रूप से अपना-अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है । भारतीय वाङ्मय के शिल्पियों ने इन भाषाओं का यथेच्छ प्रयोग किया है । उन्होंने इनके माध्यम से अपनी बहुमुख प्रतिभा के मणि-दर्पणों में भारत के ज्ञान-विज्ञान मुख को प्रतिबिंबित किया है । संस्कृत के साथ-साथ चलने वाली प्राकृत भाषा का क्षेत्र विशिष्ट विद्वानों तक ही सीमित नहीं
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भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय में प्राकृत का योगदान
रहा वरन् यह व्यापक क्षेत्र वाली लोकभाषा के रूप में अभिव्यक्त हुई । प्रजाओं की भाषा होने से इसे प्राकृत नाम दिया गया । 'प्रकृतौ भवः प्राकृतः ' - जिसका प्रकृति से उद्भव है, वह प्राकृत है । इस अर्थ में प्रकरण-संगति के अनुसार जन-भारती को ही प्राकृत नाम मिला। इसका प्रसार लोक में जन-साधारण में था, यह बात जैनाचार्य के एक श्लोक से स्पष्ट हो जाती है
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अर्थात् तत्त्वज्ञों ने चारित्र संबंधी उपदेश की इच्छा रखने वाले बालक, स्त्री, मन्दबुद्धि तथा मूर्खों के प्रतिबोध के लिए सिद्धान्तों का प्रतिपादन प्राकृत में किया ।' संस्कृत साहित्य के प्राचीन नाटकों में स्त्री, चेटी, भृत्य तथा इस कोटी के अन्य सामान्य पात्रों की भाषा प्राकृत मिलती है ।
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम्, प्रतिबोधाय तत्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥
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