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गए हैं। आगम-प्रमाण के लौकिक एवं लोकोत्तर के अतिरिक्त तीन भेद भी किए गए हैं—आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम।२५
___ अनुयोगद्वार सूत्र में प्रमाण पर इस प्रकार विपुल सामग्री उपलब्ध है, तथापि इसे जैन न्याय में नहींवत् अपनाया गया है।
भद्रबाहु की नियुक्तियां भी प्राकृत-साहित्य का अंग है । दशवैकालिक सूत्र की नियुक्ति में भद्रबाहु ने अनुमान वाक्य के अवयवों की चर्चा करते हुए उसके दो, तीन, पांच और दस अवयव बतलाए हैं । दो अवयवों में प्रतिज्ञा एवं उदाहरण, तीन में प्रतिज्ञा, हेतु एवं उदाहरण, तथा पांच अवयवों में प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपसंहार और निगमन को स्वीकार किया है । दस अवयवों का प्रयोग दो प्रकार से प्रतिपादित है। प्रथम प्रकार में प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञा-विशुद्धि हेतु, हेतु-विशुद्धि, दृष्टान्त, दृष्टान्तविशुद्धि, उपसंहार, उपसंहारविशुद्धि, निगमन एवं निगमनविशुद्धि को गिनाया गया है तथा द्वितीय प्रकार में प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञा-विभक्ति, हेतु, हेतु-विभक्ति, विपक्ष, प्रतिसेध, दृष्टान्त, आशंका, तत्प्रतिषेध, और निगमन का उल्लेख है।३६ भद्रबाहु के द्वारा प्रतिपादित अवयवों के विभिन्न भेदों से जैनदार्शनिकों को दो, तीन या पांच अवयव स्वीकार करने में प्रेरणा मिली है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि आगम आदि प्राकृत-साहित्य में प्रमाण का जो स्वतंत्र निरूपण है वह जैन-न्याय के प्रमाण-निरूपण का प्रमुख आधार नहीं बना है। प्रमुख आधार बना है जैनागमों में प्रतिपादित मति, श्रुत, आदि पांच ज्ञानों का वर्णन । इन पांच ज्ञानों के वर्णन का उत्तरवर्ती प्राकृतसाहित्य में जो विकास हुआ वह भी जैन प्रमाण-मीमांसा के प्रतिपादन एवं व्यवस्थापन में सहायक सिद्ध हुआ है। ज्ञान को प्रमाण स्वीकार करने के कारण जैनदार्शनिकों ने आगमानुकूल रहने का प्रयास अवश्य किया है, किन्तु प्रमाण को हेयोपादेय के व्यवहार से जोड़ने के कारण उसके स्वरूप में उन्होंने व्यवसायात्मकता, संशयविपर्ययादि से रहितता आदि नवीन विशेषताओं का योजन भी किया है। यही नहीं प्रमाण को सांव्यवहारिक रूप देने के लिए स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को भी प्रमाण अंगीकृत किया है। आगम की सारणी को छोड़कर इन्द्रिय से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष की श्रेणि में लिया है। तथापि ज्ञानावरण के क्षयोपशम मात्र से अर्थ का ज्ञान होना स्वीकार करने तथा पदार्थ एवं आलोक आदि कारणों का निरसन करने से उनकी आगमापेक्ष बुद्धि ही स्फुटित होती है। अवग्रह एवं ईहाज्ञान को प्रमाण की कोटि में सम्मिलित करना भी जैनदार्शनिकों की आगमिक सरणि को स्पष्ट करता
अत: जैन प्रमाण-मीमांसा का जो प्रासाद खड़ा हुआ है उसकी भित्ति आगमों में निरूपित प्राकृत-साहित्य में उपलब्ध जैन न्याय के बीज
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