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आर्यभद्र गुप्त के प्रशिष्य सिद्ध होते हैं । यद्यपि कथानकों में आर्यरक्षित को तोषलिपुत्र का शिष्य कहा गया है। हो सकता है कि तोषलिपुत्र आर्यभद्र गुप्त के शिष्य रहे हों। स्थविरावली के अनुसार आर्यभद्र के शिष्य आर्यनक्षत्र और उनके शिष्य आर्यरक्षित थे। चाहे कल्पसूत्र की स्थविरावली में कुछ अस्पष्टताएं हों और दो आचार्यों की परम्परा को कहीं एक साथ मिला दिया गया हो, फिर भी इतना तो निश्चित है कि आर्य भद्र आर्यरक्षित से पूर्ववर्ती या ज्येष्ठ समकालिक हैं । ऐसी स्थिति में यदि नियुक्तियां आर्यभद्रगुप्त के समाधिमरण के पश्चात् की आर्यरक्षित के जीवन की घटनाओं का विवरण देती हैं, तो उन्हें शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त की कृति नहीं माना जा सकता।
यदि हम आर्यभद्र को ही नियुक्ति के कर्ता के रूप में स्वीकार करना चाहते हैं तो इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है कि हम आर्यरक्षित, अन्तिम निह्नव एवं बोटिकों का उल्लेख करने वाली नियुक्ति गाथाओं को प्रक्षिप्त मानें । यदि आर्यरक्षित आर्यभद्रगुप्त के निर्यापक हैं तो ऐसी स्थिति में आर्यभद्र का स्वर्गवास वीर निर्वाण सं. ५६० के आस-पास मानना होगा क्योंकि प्रथम तो आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना अपने युवावस्था में ही करवायी थी और दूसरे तब वीर निर्वाण सं.५८४ (विक्रम की द्वितीय शताब्दि) में स्वर्गवासी होने वाले आर्यवज्र जीवित थे । अत: नियुक्तियों में अन्तिम निह्नव का कथन भी सम्भव नहीं लगता, क्योंकि अबद्धिक नामक सातवां निह्नव वीरनिर्वाण के ५८४ वर्ष पश्चात् हुआ है। अत: हमें न केवल आर्यरक्षित सम्बन्धी अपितु अन्तिम निह्नव एवं बोटिकों सम्बन्धी विवरण भी नियुक्तियों में प्रक्षिप्त मानना होगा। यदि हम यह स्वीकार करने को सहमत नहीं हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त भी नियुक्तियों के कर्ता नहीं हो सकते हैं। अत: हमें अन्य किसी भद्र नामक आचार्य की खोज करनी होगी। क्या गौतमगोत्रीय आर्यभद्र नियुक्तियों के कर्ता हैं?
काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त के पश्चात् कल्पसूत्र पट्टावली में हमें गौतमगोत्रीय आर्यकालक के शिष्य और आर्य संपलित के गुरू भाई आर्य भद्र का भी उल्लेख मिलता है। ये आर्यभद्र आर्य विष्णु के प्रशिष्य एवं आर्यकालक के शिष्य हैं तथा इनके शिष्य के रूप में आर्य वृद्ध का उल्लेख है । यदि हम आर्य वृद्ध को वृद्धवादी मानते हैं, तो ऐसी स्थिति में ये आर्यभद्र सिद्धसेन के दादा गुरु सिद्ध होते हैं। यहां हमें यह देखना होगा कि क्या ये आर्यभद्र भी स्पष्ट संघभेद अर्थात् श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर सम्प्रदायों के नामकरण के पूर्व हुए हैं? यह सुनिश्चित है कि सम्प्रदाय भेद के पश्चात् का कोई भी आचार्य नियुक्ति का कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि
नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन
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