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यदि हम नियुक्तिकार के रूप में नैमित्तक भद्रबाहु को स्वीकार करते हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि नियुक्तियां विक्रम की छठीं सदी की रचनाएं हैं, क्योंकि वाराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ के अन्त में शक संवत् ४२७ अर्थात् विक्रम संवत् ५६८ का उल्लेख किया है।६० नैमित्तिक भद्रबाहु वाराहमिहिर के भाई थे, अत: वे उनके समकालीन है। ऐसी स्थिति में यही मानना होगा कि नियुक्तियों का रचनाकाल भी विक्रम की छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध है।
यदि हम उपर्युक्त आधारों पर नियुक्तियों को विक्रम की छठीं सदी में हुए नैमित्तिक भद्रबाहु की कृति मानतेहैं, तो भी हमारे सामने कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं
१. सर्वप्रथम तो यह कि पाक्षिक सूत्र एवं नन्दीसूत्र में नियुक्तियों के अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख है“स सुत्ते सअत्थे सगंथे सनिज्जुतिए ससंगहणिए"
—(पाक्षिकसूत्र, पृ.८०) “संखेज्जाओ निज्जुतीओ संखेज्जा संगहणीणओ"
–(नन्दीसूत्र, सूत्र सं. ४६) इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ विक्रम की छठवीं सदी के पूर्व निर्मित हो चुके थे। यदि नियुक्तियां छठी सदी उत्तरार्द्ध की रचना है तो फिर विक्रम की पांचवी शती के उत्तरार्द्ध या छठी शती के पूर्वार्द्ध के ग्रन्थों में छठी सदी के उत्तरार्द्ध में रचित नियुक्तियों का उल्लेख कैसे संभव है? इस सम्बन्ध में मुनिश्री पुण्यविजय जी ने तर्क दिया है कि नन्दीसूत्र में जो नियुक्तियों का उल्लेख है, वह गोविन्द-नियुक्ति आदि को ध्यान में रखकर किया गया होगा।६१ यह सत्य है कि गोविन्दनियुक्ति एक प्राचीन रचना है क्योंकि निशीथचूर्णि में गोविन्दनियुक्ति के उल्लेख के साथ-साथ गोविन्दनियुक्ति की उत्पत्ति की कथा भी दी गई है।६२ गोविन्दनियुक्ति के रचयिता वही आर्यगोविन्द होने चाहिए जिनका उल्लेख नन्दीसूत्र में अनुयोगद्वार के ज्ञाता के रूप में किया गया है। स्थविरावली के अनुसार ये आर्य स्कंदिल की चौथी पीढ़ी में हैं।६३ अत: इनका काल विक्रम की पांचवीं सदी निश्चित होता है । अत: मुनि श्रीपुण्यविजय जी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि पाक्षिकसूत्र एवं नन्दीसूत्र में नियुक्ति का जो उल्लेख है वह आर्य गोविन्द की नियुक्ति को लक्ष्य में रखकर किया गया है । इस प्रकार मुनि जी दसों नियुक्तियों के रचयिता के रूप में नैमित्ति भद्रबाहु को ही स्वीकार करते हैं और नन्दीसूत्र अथवा पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्ति का उल्लेख है उसे वे गोविन्दनियुक्ति का मानते हैं । हम मुनि श्री पुण्यविजयजी की इस बात से पूर्णत: सहमत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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