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६०९ में हुई । ये घटनाएं चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु के लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् हुई है। अत: उनके द्वारा रचितनियुक्ति में इनका उल्लेख होना सम्भव नहीं लगता है। वैसे मेरी दृष्टि में बोटिक मत की उत्पत्ति का कथन नियुक्तिकार का नहीं है—नियुक्ति में सात निह्नवों का ही उल्लेख है। निह्नवों के काल एवं स्थान सम्बन्धी गाथाएं भाष्य गाथाएं है--जो बाद में नियुक्ति में मिल गई हैं। किन्तु निर्युक्तियों में सात निह्नवों का उल्लेख होना भी इस बात का प्रमाण है कि नियुक्तियां प्राचीनगोत्रीयपूर्वधर भद्रबाहु की कृतियां नहीं हैं।
८. सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा १४६ में द्रव्य-निक्षेप के सम्बन्ध में एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे तीन आदेशों का उल्लेख हुआ है। ये विभिन्न मान्यताएं भद्रबाहु के काफी पश्चात् आर्य सुहस्ति, आर्य मंक्षु आदि परवर्ती आचार्यों के काल में निर्मित हुई है। अत: इन मान्यताओं के उल्लेख से भी नियुक्तियों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु है, यह मानने में बाधा आती है।
. मुनिजी पुण्यविजयजी ने उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्त्याचार्य, जो नियुक्तिकार के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु को मानते हैं, की इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि नियुक्तिकार त्रिकालज्ञानी है । अत: उनके द्वारा परवर्ती घटनाओं का उल्लेख होना असम्भव नहीं है।" यहां मुनि पुण्यविजयजी कहते हैं कि हम शान्त्याचार्य की यह बात स्वीकार कर भी लें, तो भी नियुक्तियों में नामपूर्वक वज्रस्वामी को नमस्कार आदि किसी भी दृष्टि से युक्ति संगत नहीं कहा जा सकता। वे लिखते हैं कि यदि उपर्युक्त घटनाएं घटित होने के पूर्व ही नियुक्तियों में उल्लिखित कर दी गयीं हों तो भी अमुक मान्यता अमुक पुरुष द्वारा स्थापित हुई यह कैसे कहा जा सकता है।
पुन: जिन दस आगम ग्रन्थों पर नियुक्ति लिखने का उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में है, उससे यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु के समय आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अतिविस्तृत एवं परिपूर्ण थे । ऐसी स्थिति में उन आगमों पर लिखी गयी नियुक्ति भी अतिविशाल एवं चारों अनुयोगमय होना चाहिए। इसके विरोध में यदि नियुक्तिकार भद्रबाहु थे, ऐसी मान्यता रखने वाले विद्वान् यह कहते हैं कि नियुक्तिकार तो भद्रबाहु ही थे और वे नियुक्तियाँ भी अतिविशाल थीं, किन्तु बाद में स्थविर आर्यरक्षित ने अपने शिष्य पुष्यमित्र की विस्मृति एवं भविष्य में होने वाले शिष्यों की मंद-बुद्धि को ध्यान में रखकर जिस प्रकार आगमों के अनुयोगों को पृथक् किया, उसी प्रकार नियुक्तियों को भी व्यवस्थित एवं संक्षिप्त किया। इसके प्रत्युत्तर में मुनि श्री पुण्यविजयजी का कथन है कि प्रथम तो यह कि आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों के पृथक् करने की बात तो कही जाती १००
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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