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सुविधा एवं उनकी सुरक्षितता-अलमारियों में होने पर भी मजूसा ही अधिक दिखाई देती हैं। इसका कारण उनकी मजबूती और विप्लव के समय तथा दूसरे चाहे जिस अवसर पर उनके स्थानान्तर संचारण की सरलता ही हो सकता है। यही कारण है कि इन मजूसों को पहिए भी लगाए जाते थे। यह बात चाहे जैसी हो, परन्तु ग्रन्थ-संग्रह की सुरक्षितता और लेने-रखने की सुविधा तो ऊर्ध्वमहामंजूषा अर्थात् अलमारी में ही है । जैसलमेर के तहखाने में लकड़ी एवं पत्थर की मजूसाएँ तथा पत्थर की अलमारियाँ विद्यमान थीं परन्तु मेरे वहाँ जाने के बाद वे सब वहाँ से हटा लिए गए हैं, और उनके स्थान में वहाँ पर स्टील की अलमारियाँ आदि बनवाई गई हैं। हम जब जैसलमेर गए तब वहाँ का ग्रन्थसंग्रह उपर्युक्त मजूसाओं में रखने के बदले पत्थर की अलमारियों में रखा जाता था। बड़ी मारवाड़ में लकड़ी की अपेक्षा पत्थर सुलभ होने के कारण ही उनकी अलमारियाँ बनाई जाती थी। अत: इनकी मजबूती आदि के बारे में किसी भी प्रकार के विचार को अवकाश ही नहीं है।
जैन श्रीसंघ का लक्ष्य ज्ञानभाण्डार बसाने की ओर जब केन्द्रित हुआ तब उसके सम्मुख उनके रक्षण का प्रश्न भी उपस्थित हुआ। इसके प्रश्न के समाधान के लिये दूसरे साधनों की तरह उसने एक पर्व-दिवस को भी अधिक महत्त्व दिया। यह पर्व है ज्ञानपंचमी–कार्तिक शुक्ला पंचमी का दिन । समूचे वर्ष की सर्दी, गरमी तथा नमी जैसी ऋतुओं की विविध असरों में से गुजरी हुई ज्ञानराशि को यदि उलट-पुलट न किया जाय तो वह असमय में ही नाशाभिमुख हो जाय । अत: उसे बचाने के लिये उसकी हेरफेर वर्ष में एक बार अवश्य करनी चाहिए जिससे उनकी अनेकविध विकृत असर दूर हो और शास्त्र सदा आरोग्य-दशा में रहें। परन्तु विशाल ज्ञानभाण्डारों के उलट फेर का यह काम एकाध व्यक्ति के लिये दुष्कर और थकाने वाला न हो तथा अनेक व्यक्तिओं का सहयोग अनायास ही मिल सके इसलिये इस धर्म-पर्व की योजना की गई है। आज इस धार्मिक पर्व को जो महत्त्व दिया जाता है उसके मूल में प्रधान रूप से तो यही उद्देश था, परन्तु मानवस्वभाव के स्वाभाविक छिछलेपन तथा निरुद्यमीपन के कारण इसका मूल उद्देश विलुप्त हो गया है और उसका स्थान बाहरी दिखावे एवं स्थूल क्रियाओं ने ले लिया है।
ज्ञान भाण्डारों में उपलब्ध सामग्री ये ज्ञानभाण्डार विविध दृष्टि से समृद्ध और महत्त्व के हैं। इनकी मुख्य विशेषता यह है कि इनका संग्रह यद्यपि जैनों ने किया है फिर भी वे मात्र जैनशास्त्रों के संग्रह तक ही मर्यादित नहीं हैं। उनमें जैन-जैनेतर अथवा वैदिक-बौद्ध-जैन, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी, मराठी, फारसी आदि भाषाओं का जैन-जैनेतर ऋषि-स्थविर-आचार्यों के रचे हुए धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त ज्ञान भंडारों पर एक दृष्टिपात
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