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यदि कलम का उपयोग किया जाय तो उसकी बारीक नोक थोड़ी ही देर में कूची जैसी हो जाय । इसलिये हमारे यहां प्राचीन समय में लकीरें खींचने के लिये जुजवल का प्रयोग किया जाता था। इसका अग्रभाग चिमटे की तरह दो तरफ मोड़कर बनाया जाता है । इसलिये इसे जुजवल अथवा जुजबल कहते हैं। यह किसी-न-किसी धातु का बनाया जाता है। इसी तरह यंत्रपटादि में गोल आकृति खींचने के लिये प्राकार (परकाल, अं. Compass) भी बनते थे । इस प्रकार का लकीर खींचने की तरफा का मुंह जुजवल से मिलता जुलता होता है, जिससे गोल आकृति खींचने के लिये उसमें स्याही ठहर सके।
लिपि-जैन ज्ञानभाण्डारगत शास्त्रों की लिपि की पहचान कुछ विद्वान जैन लिपि के नाम से कराते हैं । सामान्यत: लिपि का स्वरूप प्रारम्भ में एक जैसा होने पर भी समय के प्रवाह के साथ विविध स्वभाव, विविध देश एवं लिपियों के सम्पर्क और विभिन्न परिस्थिति के कारण वह भिन्न भिन्न नाम से पहचानी जाती है। यही सिद्धान्त जैन-लिपि के बारे में भी लागू होता है। उदाहरणार्थ, हम भारतवर्ष की प्रचलित लिपियों को ही देखें । यद्यपि ये सब एक ही ब्राह्मी लिपि की सहोदर लड़कियां है, फिर भी आज तो वे सब सौतिली लड़कियां जैसी बन गई है। यही बात इस समय प्रचलित हमारी देवनागरी लिपि को भी लागू होती है जो कि हिन्दी, मराठी, ब्राह्मण
और जैन आदि अनेक विभागों में विभक्त हो गई है । जैन-लिपि भी लेखन प्रणाली के वैविध्य को लेकर यतियों की लिपि, खरतर गच्छ की लिपि, मारवाड़ी लेखकों की लिपि, गुजराती लेखकों की लिपि आदि अनेक विभागों में विभक्त है। ऐसा होने पर भी वस्तुत: यह सारा लिपिभेद लेखनप्रणाली के ही कारण पैदा हुआ है। बाकी, लिपि के मौलिक स्वरूप की जिसे समझ है उसके लिये जैन-लिपि जैसी कोई वस्तु ही नहीं है। प्रसंगोपात्त हम यहां पर एक ॐकार अक्षर ही लें । जैन-लिपि और मराठी, हिन्दी आदि लिपि में भिन्न भिन्न रूप से दिखाई देने वाले इस अक्षर के बारे में यदि हम नागरी लिपि का प्राचीन स्वरूप जानते हों तो सरलता से समझ सकते हैं कि सिर्फ अक्षर के मरोड़ में से ही ये दो आकृतिभेद पैदा हुए हैं । वस्तुत: यह कुछ जैन या वैदिक ॐकार का भेद ही नहीं है। लिपिमाला की दृष्टि से ऐसे तो अनेक उदाहरण हम दे सकते हैं । इसलिये यदि हम अपनी लिपिमाला के प्राचीन-अर्वाचीन स्वरूप जान लें तो लिपिभेद का विषय हमारे सामने उपस्थित ही नहीं होता। जैन ग्रन्थों की लिपि में सत्रहवीं शती के अन्त तक पृष्ठमात्रा-पाडमात्रा और अग्रमात्रा का ही उपयोग अधिक प्रमाण में हुआ है, परन्तु उसके बाद पृष्ठमात्राने ऊर्ध्वमात्रा का और अग्रमात्रा ने अधोमात्रा का स्वरूप धारण किया। इसके परिणामस्वरूप बाद के जमाने में लिपि का स्वरूप संक्षिप्त और छोटा हो गया।
ज्ञान भंडारों पर एक दृष्टिपात
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