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गुण-पारखी विद्वान् • श्री सुलतान सिंह जैन एम० ए०, शामली
एक स्थलपर अंग्रेजी लेखक स्वेट मार्डनने लिखा है कि 'मनुष्य उतना ही नहान् होगा जितना वह अपनी आत्मामें सत्य, त्याग, दया, प्रेम और शक्तिका विकास करेगा।'
विद्वान् स्वेट मार्डनका उक्त कथन न्यायाचार्य डॉ० दरबारीलाल कोठियाके जीवनपर शत-प्रतिशत घटित होता है । निःसन्देह उनकी आत्मा, सत्य, त्याग, दया, प्रेम एवं शक्तिका एक जीवंत पुंज है । इस बातका अनुभव मैंने सर्वप्रथम लगभग सन् १९५३-५४ के मध्य किया था, जबकि वे समन्तभद्र-महाविद्यालय, दिल्ली में सेवारत थे और शामली में जैन अनाथाश्रम दिल्लीकी एक नाटक-मण्डलीके साथ पधारे थे। उनके निर्देशन में श्री जैन कन्या पाठशाला (अब इण्टर कॉलेज) शामली में एक जैन नाटकका मंचन रात्रिके लगभग ७ से १० बजे तक सफलतापूर्वक किया गया था। नाटकके मंचनके उपरान्त उन्होंने जिस रोग र्षक एवं प्रवाहपूर्ण भाषा-शैलीमें अपना प्रसादमयी तथा माधुर्यपूर्ण भाषण दिया था, उसको सुनकर समस्त श्रोतागण आत्म-विभोर हो उठे थे । तभी मेरा और श्री कोठियाजीका प्रथम साक्षात्कार हुआ था।
मैंने अपने प्रथम साक्षात्कारमें मान्यवर कोठियाजीको धोती, कुर्ता और टोपी पहने देखा था, जिससे स्पष्ट विदित हो रहा था कि कोठियाजी 'सादा जीवन और उच्च विचार' की साक्षात् मूर्ति हैं । यही नहीं, सौम्यता उनके मन-वचन और कायसे फूटी पड़ रही थी।
डॉ० दरबारीलालजीसे मेरा द्वितीय साक्षात्कार जुलाई, १९५७ में हुआ था, जबकि मुझको श्री जैन बालाश्रम हॉयर सैकेण्ड्री स्कूल, दरियागंज, दिल्लीमें हिन्दी-प्रवक्ताके पदपर नियुक्तिके लिए साक्षात्कार हेतु आमंत्रित किया गया था। उस दिन जोरदार वर्षा हो रही थी और मैं भींगे वस्त्रोंमें ही वहाँपर पहुँचा था । उस स्कूलके प्रधानाचार्य श्री जे० डी० जैन एवं प्रबंधक श्री महेन्द्र कुमार जैनसे मेरा सम्पर्क एवं साक्षात्कार प्रधानाचार्य कार्यालयमें लगभग हो ही रहा था, तभी अनायास पं० दरबारीलालजी भी वहां पर आ पहुँचे और मुझे देखकर गद्गद हो उठे और मैं भी हृदयमें फूला न समाया। श्री कोठियाजीने श्रीमान् प्रबंधक महोदय एवं प्रधानाचार्य महोदयसे मेरे द्वारा गद्य-काव्य रचना करने (क्योंकि वहींके मासिक 'जैन प्रचारक' में मेरे कई गद्य-काव्य कई वर्ष पूर्वसे प्रकाशित हो रहे थे). जैनागमके अनुसार विभिन्न विषयोंपर लेख लिखने और न जाने कितनी बातोंमें मेरी प्रशंसाके पुल बाँध दिये । वे दोनों ही अधिकारीगण मुझसे अत्यन्त ही प्रभावित हुए और उनके हृदयोंमें मुझे नियुक्त करनेकी पूर्ण-रूपेण भावना जागृत हो उठी; किन्तु दुर्भाग्यवश मैं स्वीकार न कर सका।
डॉ० कोठियाजीकी वे सब बातें आज भी मुझे रह-रहकर स्मरण हो आती हैं और पश्चात्ताप करता हैं कि यदि मैं तब श्री कोठियाजीकी बातें स्वीकार कर बालाश्रम स्कूल दिल्ली में रहना स्वीकार कर लेता तो निश्चय ही मेरा जीवन किसी दूसरी धारामें ही प्रवाहित हुआ होता। श्री कोठियाजी जैसे महान् विद्वान्की छत्रछायामें रहकर अबसे, कहीं अधिक जैन समाज, जैन साहित्य-संस्कृति एवं जैन संस्थाओंकी सेवा कर पाता ।
उपर्युक्त दो साक्षात्कारोंके अतिरिक्त मैं श्री कोठियाजीके ग्रन्थों एवं पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित लेखोंका आद्योपान्त अध्ययन करता रहता हूँ और उनका रसास्वादन कर कोठियाजीको मन-ही-मन स्मरण करता रहता हूँ। मेरे उन्हें शतशः अभिवादन है ।
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