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आपका परिचय कराया। जितना जो कुछ भी उस समय समझ पाई वह इतना ही था कि आप एक उच्चकोटिके विद्वान् है। तबसे परिचय बढ़ता गया। यह परिचय मेरे जीवनसाथी डॉ० भागचन्द्र भास्करके गुरुवर्य होनेके कारण पंडितजीसे अनेक बार मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। गाहस्थिक क्षेत्र में प्रवेश करनेपर उनका जो आशीर्वाद मिला था उसे आज भी मैं सँजोये रखी हैं ।
पंडितजी एक समय-शिल्पी साधक रहे हैं । समाजके सुदृढीकरणमें उन्होंने जो योगदान दिया है वह अविस्मरणीय रहेगा। मतभेद और वैमनस्यको सामंजस्य और सौमनस्यके साथ समाप्त करनेकी वर्णीजीकी परम्पराको आपने अच्छी तरह सहेजा है।
पंडितजीका यह निश्छल सौहार्द किसी सीमासे बँधा नहीं है। उनके निकट जो भी आया वह उनका होकर रहा । कहीं भटका भो, तो अंतमें पुनः वापिस आया।
अनेक प्रतिष्ठानोंके जन्मदाता, जीवनदाता, ग्रन्थोंके लेखक, प्रकाशक, अनुशासनबद्ध, निलिप्त, साधक कोठियाजी निरामय रहकर शतायु हों, यही शुभ कामना है । चहुमुखी प्रतिभाके धनी • श्री प्रताप चन्द्र जैन, आगरा
जनवरी सन् १९७० में अ० भा० जैन साहित्य संसद सेमिनारका जयपुर में आयोजन किया गया। था। उसमें देशके चोटीके जैन विद्वानोंमें डॉ० कोठियाजी भी थे। आयोजन स्थान था पं० टोडरमल स्मारक भवन ।
सेमिनारमें दो दिन तक डाक्टर साहबको देखने-सुननेका सौभाग्य मुझे भी मिला। हमलोग महावीर दिगम्बर जैन हाईस्कूलके गणतन्त्र-समारोहमें, राजस्थान विश्वविद्यालयके दर्शन-विभागकी संगोष्ठीमें और श्री पद्मपुराजीकी यात्रामें भी साथ रहे। उनकी चर्या में व्यवहारमें कतई मान नहीं था। बड़े ही मिलनसार । आपके पांडित्यपूर्ण तर्कों और विचारोंसे सभी ऐसे प्रभावित थे कि महावीर दिगम्बर जैन नशियाकी सायंकालीन विद्वद् गोष्ठीके अध्यक्ष आप ही मनोनीत किये गये। विद्वानोंकी उस गोष्ठीका संचालन ऐसी कुशलता, योग्यता और विद्वत्तासे किया कि उसमें निखार आ गया । जैन दर्शनकी सार्वभौमिकता जैसे गूढ़ और नीरस विषयको ऐसा सरस बना दिया गया कि साधारण श्रोता भी बगैर ऊबे बोर हुए उसमें तल्लीन हो आनन्द लेते रहे। अपने अध्यक्षीय भाषण में आपने जो निष्कर्ष प्रस्तुत किया वह बड़ा ही दिशाबोधक व विद्वत्तापूर्ण था। मेरे ऊपर भी गहरी छाप पड़ी आपकी ।
___आखरी बार आपसे मेरी भेट मुलाकात वाराणसीमें आपके ही निवास स्थानपर १० मई सन् १९८० को हुई थी। जैसे ही मैं आपके यहाँ पहुँचा, दस सालके अन्तरालके बाद भी, आगरेका नाम लेते ही मुझे पहचानने में आपको देर नहीं लगी। बड़ी आत्मीयतासे मिले, बैठाया तथा जलपान कराकर मुझे निहाल किया। बड़ी देरतक हम दोनों इतने अन्तरालकी बीती-बिसरी बातोंपर चर्चा करते रहे । समाजको वर्तमान गिरती दशा, संस्थाओंकी प्राणहीनता और जैन विद्वानोंकी आपसी खींचतानसे आप बहुत ही क्षुब्ध थे । अवस्था व अस्वस्थताके कारण आप झटक अवश्य गये थे, फिर भी चेहरेपर तेज था और आलस्यका नाम नहीं था। अपनी आत्मीयताने ऐसा बाँध लिया था मुझे कि हटनेको मेरा मन ही नहीं कर रहा था, फिर भी लौटना तो था ही । लौटा तो मधुर स्मृति लेकर।
इस पुनीत अवसर पर मैं श्रद्धावनत होकर आपके स्वस्थ, सुखी और निराकुल दीर्घ जीवनकी हृदयसे कामना करता हूँ।
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