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ओ ! साहित्यिक संत ! •आशुकवि शर्मनलाल जैन 'सरस', सकरार धन्य हो गयी धरा तुम्हें पा, करता मन वंदन है, ओ ! साहित्यिक संत, तुम्हारा शत-शत अभिनंदन है।
(१)
नकली प्रेम आज दुनियामें, डग-डग डेरा डाले, भौतिकताने लगा दिये हैं, आत्म-द्वार पर ताले, ऐसे में उरके कोठेको, खोल कोठिया तुमनेजगकी ग्रन्थि खोलने वाले, अमर ग्रन्थ दे डाले, जिनका पारायण कर माटी, हो सकती चंदन है, ओ! साहित्यिक सन्त तुम्हारा, शत-शत अभिनंदन है ।
(२) कैसे वर्णन करें आपने, जो उपकार किया है ? पता नहीं कितनोंको तुमने ऐसा प्यार दिया है, जिसकी मौत नहीं हो सकती, कभी किसी भी युगमेंजो भी किया काम निष्कामी, कब उपहार लिया है, उसका वर्णन इन वर्णोसे, कब सम्भव ? वंदन है, ओ ! साहित्यिक सन्त तुम्हारा, शत-शत अभिनंदन है।।
(३) आज तुम्हारे अभिनन्दनपर, चहुदिश दिशा सुनाती, अमर रहो तुम युग-युगांत तक, हे बुंदेली थाती, धन्य तुम्हारी जीवन-साथी, श्री चमेली बाईवह भी साथ प्रकाश दे रही, ज्यों दीपक सँग बाती, उनको भी कविकी श्रद्धाका बार-बार वंदन है, ओ ! साहित्यिक संत तुम्हारा शत-शत अभिनंदन है।
वैसे तुम इससे ऊँचे हो, यह यश नहीं मरेगा, इससे बढ़ अभिनंदन, कलका कल आ स्वयं करेगा, फिर भी एक बात मैंने, सून ली दर्पणके मुख से धन्य हो रहा अभिनन्दन खुद अभिनंदन कर सुखसे, 'सरस जैन'की यह सनेह-निधि, रोली है चंदन है, ओ! साहित्यिक संत तुम्हारा, शत-शत अभिनंदन है ।
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