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________________ महावीर-जयन्ती चैत्र सुदी १३ का सुहावना दिवम भगवान् महावीरका जन्म-दिन है। आजसे २५५४ वर्ष पूर्व इस दिन उन्होंने जन्म लिया था। वे एक मानव थे और मानवसे भगवान बने थे। उनमें इतनी विशेषता थी कि उनका ज्ञान और बल असाधारण था। संजय और विजय मुनिराजोंके लिए उन्हें देखकर अभिलषित ज्ञान होना. भयंकर सर्पको अपने वशमें करना, विषय-वासनाओंसे अलिप्त रहना, आदि सैकड़ों घटनाएँ हैं, जो उनकी अलौकिकताको प्रकट करती हैं। पर महावीरका महावीरत्व इन चमत्कारोंसे नहीं है। उनका महावीरत्व है-आत्मविकारोंपर विजय पानेसे । सबसे पहले उन्होंने दूसरोंपर शासन करनेकी अपेक्षा अपनेपर शासन किया। मानवसुलभ जितनी कमजोरियां और विकार हो सकते हैं उन सबपर उन्होंने काबू पाया । प्रायः यह प्रत्येकके अनुभवगम्य है कि दूसरोंको उपदेश देना बड़ा सरल होता है, पर उसपर स्वयं चलना उतना ही कठिन होता है। महावीरने लोकके इस अनुभवसे विपरीत किया। उन्होंने सबसे पहले महावीरत्व प्राप्त करने के लिये स्वयं अपनेको उस ढांचे में ढाला और जब वे उसमें उत्तीर्ण हो गये-आत्म-विश्वास, आत्मज्ञान और आत्मसंयमको पूर्ण रूपमें स्वयं प्राप्त कर लिया तब दूसरोंको भी उस मार्गपर चलने के लिये कहा। ___ महावीरने एक दिन नहीं, एक माह नहीं, एक वर्ष नहीं, अपितु पूरे १२ वर्ष तक कठोर साधना की। उनका एक लक्ष्य साधनामें रहा । वह यह कि 'शरीरं वा पातयामि कार्य वा साधयामि ।' और इसीसे वे अपने लक्ष्यको प्राप्तिमें पूर्णतः सफल हुए। उन्होंने पार्श्वनाथ आदि अन्य तीर्थकरोंको तरह तीर्थकरत्व प्राप्त किया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन्हें अपने समयकी अनगिनत विषमताओं और संघर्षों का सामना करना पड़ा । लेकिन उन सबको उन्होंने समुद्रकी तरह गम्भीर, मेरुकी तरह निश्चल, आकाशकी तरह निर्लेप और सूर्य की तरह निरपेक्ष प्रकाशक बनकर शान्त किया । परिणाम यह हुआ कि समकालीन अन्य तीथिकधर्मप्रवर्तक उनके सामने अधिक समय तक न टिक सके और न अपना प्रभाव लोक-मानसपर स्थायी बनाने में समर्थ हो सके। मक्खलि गोशालक, अजितकेश कबलि, संजय वेलट्ठिपुत्त आदि धर्मप्रवर्तक इसके उदाहरण हैं। मज्झिम निकायमें आनन्द और बुद्धके अनेक जगह संवाद मिलते हैं। उनमें बुद्धने आनन्दसे महावीरके सम्बन्धमें अनेक जिज्ञासाएँ प्रकट की हैं। आनन्दने महावीरकी सभाओंमें जा-जा कर जानकारी प्राप्तकर बुद्धकी जिज्ञासाओंको शान्त किया है। उनमेंसे दो-एकको हम यहाँ देते हैं। एक बार बुद्धने आनन्दसे कहा'आनन्द ! जाओ, देखो तो, निग्गंठनातपुत्त इस समय कहाँ है और क्या कर रहे हैं ? आनन्द जाता है और महावीरको देखता है कि वे एक विशाल पाषाण जैसे ऊंचे निरावरण स्थानपर बैठे हुए हैं और ध्यानमग्न हैं । उनकी इस कठोर तपस्याको देखकर आनन्द बुद्धसे जाकर कहता है। बुद्ध महावीरकी तपस्यासे प्रभावित होकर कहते हैं कि वे दोघं तपस्वी हैं। एक बार महावीर जब विपुलगिरिपर विराजमान थे और सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी हो गये थे एवं मानव, देव, तिर्यञ्च सभीको आत्मज्ञानकी धारा बहा रहे थे, उसी समय बुद्ध भी विपुलगिरिके निकटवर्ती गृद्धकूट पर्वतपर विराजमान थे। वे आनन्दसे कहते हैं, आनन्द ! -४७४ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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