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पूज्य वर्णीजी : महत्त्वपूर्ण संस्मरण
पूज्य बाबा भागीरथजीके सम्बन्धमें हमने आप्तजनोंसे सुना था कि वे एक बार अपने भक्तोंके साथ पद-यात्रा कर रहे थे। एक जगह उन्हें पैरके अंगूठेमें पत्थरकी चोट लग गयी और अंगूठेसे खूनकी धारा बह निकली । उन्हें पता भी नहीं, वे बराबर चलते रहे । पीछे चल रहे एक भक्तकी निगाह उनके अंगठेकी ओर गयी और उसने देखा कि बाबाजीके अँगूठेसे खून बह रहा है । भक्तसे न रहा गया और बाबाजीसे वह बोला-'बाबाजी ! आपके अंगूठेसे खून बह रहा है, रुकिए, उसपर कुछ लगाकर पट्टी बाँध दी जाय ।' बाबाजी बोले-'पुग्गल-पुग्गल की लड़ाई हो गयी, हमारा क्या गया ।' भक्त बोला-'महाराज ! शरीर धर्मका आद्य साधन है, उसकी रक्षा न की जाय तो धर्मकी साधना कैसे हो सकेगी?'
बाबाजीने उत्तर दिया कि 'शरीरकी रक्षाके लिए ही तो हम उसे रोज दाना-पानी देते हैं। किन्त सावधानी रखते हए भी उसमें असाताके उदयसे यदि विकार आ जाये, तो उसके लिए हमें घबडाना नहीं चाहिए।'
भक्त बाबाजीके इस निस्पहतापूर्ण उत्तरको सुनकर सोचने लगा कि एक हम हैं जो शरीर-मोही हैं और दूसरे बाबाजी हैं, जो उसके मोही नहीं हैं। इसीलिए वे शरीरके एक हिस्से में आयी चोटको चोट नहीं समझ रहे, अपितु पुद्गल-पुद्गलकी लड़ाई बता रहे हैं । वास्तवमें ऐसे विवेकी आत्माओंको बहिरात्मा तो नहीं कहा जा सकता । कहते हैं कि बाबाजीने अपना भोजन अन्तमें क्रमशः कम करते-करते एक तोला मूंगकी दालका कर दिया था। पूरी सावधानी और विवेकावस्थामें उन्होंने शरीरका त्याग किया था। धन्य है उन्हें ।
पूज्य श्री गणेशप्रसादजी वर्णी (मनि गणेशकीर्ति महाराज) उन्हीं बाबा भागीरथजीको साथी ही नहीं, अपना गुरु भी मानते थे। समाजमें इन दोनों वणियोंके प्रति अपूर्व श्रद्धा एवं निष्ठा थी और दीपचन्दजी वर्णी सहित तीनों 'वर्णीत्रय' के रूपमें मान्य और पूज्य थे।
पर 'वर्णी' नाम जितना गणेशप्रसादजी के साथ अभिन्न हो गया था उतना उन दोनों वणियोंके साथ नहीं। यही कारण है कि 'वर्णीजी' कहनेपर गणेशप्रसादजीका ही बोध होता है । वास्तवमें 'वर्णीजी' यह उपनाम न रहकर उनका नाम ही हो गया था। यह तभी होता है, जब व्यक्ति अपने असाधारण त्याग, ज्ञान, चारित्र, लोकोपकार आदि लोकातिशायी गुणोंसे असाधारण प्रतिष्ठा और महानता पा लेता है, तब लोग उसके छोटे नामसे ही उसे सम्बोधित करके अपना आदरभाव व्यक्त करते हैं। 'मालवीय' कहनेसे मदनमोहन
और 'गाँधीजी' या 'महात्माजी' कहनेपर मोहनदास कर्मचन्द गाँधीका बोध लोग करते हैं । यही बात 'वर्णीजी' इस नामके सम्बन्धमें है ।
वर्णीजी कितने निर्मोही थे, यहाँ हम कुछ घटनाओं द्वारा बताना चाहते हैं। भयानक कारवंकर फोड़ा
ललितपुर (उत्तर प्रदेश) के क्षेत्रपालकी बात है। वहाँ उनका चातुर्मास हो रहा था। उनके दायें पैरकी जंघामें उन्हें एक भयानक कारवंकर फोड़ा हो गया था। बहुत देशी उपचार हुए, पर कोई लाभ
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