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अनुमानसे उसकी सिद्धि उनमें उपलब्ध नहीं होती। जैन दार्शनिकोंमें ही नहीं, भारतीय दार्शनिकोंमें भी समन्तभद्र ही ऐसे प्रथम दार्शनिक एवं तार्किक हैं, जिन्होंने आप्तमीमांसा (का० ३, ४, ५, ६, ७) में अनुमान से सामान्य तथा विशेष सर्वज्ञकी सिद्धि की है ।
समन्तभद्रने सर्वप्रथम कहा कि 'सभी तीर्थं प्रवर्तकों (सर्वज्ञों) और उनके समयों ( आगमों-उपदेशों में ) परस्पर विरोध होने से सब सर्वज्ञ नहीं हैं, 'कश्चिदेव' - कोई ही (एक) गुरु (सर्वज्ञ) होना चाहिए।' 'उस raat सिद्धि की भूमिका बाँधते हुए उन्होंने आगे (का० ४ में) कहा कि 'किमी व्यक्तिमें दोषों और आवरणों का निःशेष अभाव ( ध्वंस) हो जाता है क्योंकि उनकी तरतमता ( न्यूनाधिकता ) पायी जाती है, जैसे सुवर्ण में तापन, कूटन आदि साधनोंसे उसके बाह्य ( कालिमा) और आभ्यन्तर (कीट) दोनों प्रकारके मलोंका अभाव हो जाता है।' इसके पश्चात् वे (का. ५ में) कहते हैं कि 'सूक्ष्मादि पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि अनुमेय हैं, जैसे अग्नि आदि।' इस अनुमानसे सामान्य सर्वज्ञकी सिद्धि की गयी है । विशेष सर्वज्ञकी भी सिद्धि करते हुए (का० ६ व ७ में) कहते हैं कि 'हे वीर जिन ! अर्हन् ! वह सर्वज्ञ आप ही हैं, क्योंकि आप निर्दोष हैं और निर्दोष इस कारण हैं, क्योंकि आपके वचनों (उपदेश ) में युक्ति तथा आगमका' विरोध नहीं है, जबकि दूसरों (एकान्तवादी आप्तों) के उपदेशों में युक्ति एवं आगम दोनोंका विरोध है, तब वे सर्वज्ञ कैसे कहे जा सकते हैं ?" इस प्रकार समन्तभद्रने अनुमानसे सामान्य और विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि की है । और इसलिए अनुमान द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध करना आप्तमीमांसागत समन्तभद्रकी मान्यता है ।
वादिराज और शुभचन्द्रद्वारा उसका समर्थन
आज से एक हजार वर्ष पूर्व ( ई० १०२५) के प्रसिद्ध तर्कग्रन्थकार वादिराजसू ने भी उसे (अनुमानद्वारा सर्वज्ञ सिद्ध करनेको ) समन्तभद्र के देवागम (आप्तमीमांसा) की मान्यता प्रकट की है। पार्श्वनाथचरित में समन्तभद्रके विस्मयावह व्यक्तित्वका उल्लेख करते हुए उन्होंने उनके देवागम द्वारा सर्वज्ञके प्रदर्शन का स्पष्ट निर्देश किया है। इसी प्रकार आ० शुभचन्द्र ने भी देवागम द्वारा देव (सर्वज्ञ) के आगम (सिद्धि ) को बतलाया है ।
इन असन्दिग्ध प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि अनुमानसे सर्वज्ञकी सिद्धि करना समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाकी
१. तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः ।
सर्वेषामापतता नास्ति कश्चिदेव भवेद् गुरुः ॥ ३ ॥ दोषावरणयोर्हानिर्निश्शेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्म लक्षयः || ४ || सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ - संस्थितिः ॥५॥ स त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते || ६ || त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ||८|| २. स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम | देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदर्श्यते ॥ ३. देवागमेन येनात्र व्यक्तो देवाऽऽगमः कृतः
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- समन्तभद्र, आप्तमी०, ३, ४, ५, ६, ७ ।
-- पार्श्वनाथचरि० १।१७
- पाण्डवपु० ।
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