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प्रतिपादन क्यों उपलब्ध नहीं होता ? मेरे विचारसे इसके दो समाधान हो सकते हैं और जो बहुत कुछ संगत और ठीक प्रतीत होते हैं । वे निम्न प्रकार है :
(क) जिस कालमें षट्खण्डागमकी रचना हुई है उस कालकी अर्थात् -करीब दो हजार वर्ष पूर्वकी अन्तः साम्प्रदायिक स्थितिको देखना चाहिए। जहाँ तक ऐतिहासिक पर्यवेक्षण किया जाता है उससे प्रतीत होता है कि उस समय अन्तः साम्प्रदायिक स्थितिका यद्यपि जन्म हो चुका था, परन्तु उसमें पक्ष और तीव्रता नहीं आई थी । कहा जाता है कि भगवान महावीरके निर्वाणके कुछ ही काल बाद अनुयायी साधुओंमें थोड़ाथोड़ा मतभेद आरम्भ हो गया था और संघभेद होना प्रारम्भ हो गया था, लेकिन वीर-निर्वाणकी सातवीं सदी तक अर्थात् ईसीकी पहली शताब्दीके प्रारम्भ तक मतभेद और संघभेदमें कट्टरता नहीं आयी थी। अतः कुछ विचार-भेदको छोड़कर प्रायः जैन परम्पराकी एक ही धारा (अचेल) उस वक्त तक बहती चली आ रही थी और इसलिए उस समय षट्खण्डागमके रचयिताको षट्खण्डागममें यह निबद्ध करना या जुदे परके बतलाना आवश्यक न था कि द्रव्यस्त्रियोंके पाँच गुणस्थान होते हैं, उनके छठे आदि नहीं। क्योंकि प्रकट था कि मुक्ति अचेल अवस्थासे होती है और द्रव्यमनुष्यनियाँ अचेल नहीं होतीं-वे सचेल ही रहती हैं । अतएव सुतरां उनके सचेल रहने के कारण पाँच ही गुणस्थान सुप्रसिद्ध हैं। यही कारण है कि टीकाकार वीरसेन स्वामीने भी यही नतीजा और हेतु-प्रतिपादन उक्त ९३ वें सत्रकी टीकामें प्रस्तुत किये हैं तथा तत्त्वार्थवात्तिक कार अकलङ्कदेव (वि०८ वीं शती) ने भी बतलाये हैं।
ज्ञात होता है कि वीर-निर्वाणकी सातवीं शताब्दीके पश्चात् कूछ साधओं द्वारा कालके दुष्प्रभाव आदिसे वस्त्रग्रहणपर जोर दिया जाने लगा था, लेकिन उन्हें इसका समर्थन आगम-वाक्योंसे करना आवश्यक था, क्योंकि उसके बिना बहुजन सम्मत प्रचार असम्भव था। इसके लिये उन्हें एक आगम-वाक्यका संकेत मिल गया वह था साधुओंकी २२ परिषहोंमें आया हुआ 'अचेल' शब्द । इस शब्दके आधारसे अनुदरा कन्या की तरह 'ईषद् चेलः-अचेल:" अल्पचेल अर्थ करके वस्त्रग्रहणका समर्थन किया और उसे आगमसे भी विहित बतलाया। इस समयसे ही वस्तूतः स्पष्ट रूपमें भगवान महावीरकी अचेल परम्पराकी सर्वथा चेल रहित-दिगम्बर और अल्पचेल-श्वेताम्बर ये दो धारायें बन गयीं प्रतीत होती है। यह इस बातसे भी सिद्ध है कि इसी समयके लगभग हुए आचार्य उमास्वामीने भगवान् महावीरकी परम्पराको सर्वथा चेलरहित ही बतलाने के लिए यह जोरदार और स्पष्ट प्रयत्न किया कि 'अचेल' शब्दका अर्थ अल्पचेल नहीं किया जाना चाहिए-उसका तो नग्नता-सर्वथा चेल रहितता ही सीधा-सादा अर्थ करना चाहिए और यह ही भगवान् महावीरकी परम्परा है। इस बातका उन्होंने केवल मौखिक ही कथन नहीं किया, किन्तु अपनी महत्त्वपूर्ण उभय-परम्परा सम्मत सुप्रसिद्ध रचना 'तत्त्वार्थसूत्र' में बाईस परिषहोंके अंतर्गत अचेलपरिषहको, जो अब तक दोनों परम्पराओंके शास्त्रोंमें इसी नामसे ख्यात चली आयी, 'नाग्न्य-परोषह' के नामसे ही उल्लेखित करके लिखित भी कथन किया और अचेल शब्दको भ्रान्तिकारक जानकर छोड़ दिया, क्योंकि उस शब्दकी खींचतान दोनों तरफ होने लगी और उसपरसे अपना इष्ट अर्थ फलित किया जाने लगा। हमारा विचार है कि इस विवाद और भ्रान्तिको मिटानेके लिए ही उन्होंने स्पष्टार्थक और अभ्रान्त अचेलस्थानीय 'नाग्न्य' शब्दका प्रयोग किया । अन्यथा, कोई कारण नहीं कि 'अचेल' शब्दके स्थानमें 'नाग्न्य' शब्दका परिवर्तन किया जाता, जो अब तक नहीं था। अतएव आ० उमास्वामीका यह विशुद्ध प्रयत्न ऐतिहासिकोंके लिए भी इतिहासकी दृष्टिसे बड़े महत्त्वका है । इससे प्रकट है कि आरम्भिक मूल परम्परा अचेल-दिगम्बर रही और स्त्रीके अचेल न होने के कारण उसके पांच ही गुणस्थान संभव हैं, इससे आगेके छठे आदि नहीं ।
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