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९३वे सूत्रमें 'संजद' पदका सद्भाव सूत्रमें 'संजद' पद नहीं है : पूर्व पक्षकी युक्तियाँ
'षट् खण्डागम' के उल्लिखित ९३वें सूत्रमें 'संसद' पद है या नहीं ? इस विषयको लेकर काफी अरसे से चर्चा चल रही है। कुछ विद्वान उक्त सूत्र में 'संजद' पदको अस्थिति बतलाते हैं और उसके समर्थन में कहते हैं कि प्रथम तो यहाँ द्रव्यका प्रकरण है, अतएव वहाँ द्रव्यस्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोंका ही निरूपण है। दूसरे, षटखण्डागममें और कहीं आगे-पीछे द्रव्यस्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोंका कथन उपलब्ध नहीं होता। तीसरे, वहाँ सूत्र में पर्याप्त' शब्दका प्रयोग है जो द्रव्यस्त्रीका ही बोधक है। चौथे वीरसेन स्वामीकी टीका उक्तसूत्रमें 'संजद' पदका समर्थन नहीं करती, अन्यथा टोकामें उक्त पदका उल्लेख अवश्य होता। पाँचवें, यदि प्रस्तुत सूत्रको द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका प्ररूपक-विधायक न माना जाय और चूँकि षट्खण्डागममें ऐसा और कोई स्वतन्त्र सूत्र है नहीं, जो द्रव्यस्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोंका विधान करता हो, तो दिगम्बर परम्पराके इस प्राचीनतम सिद्धान्तग्रन्थ षट्खण्डागमसे द्र व्यस्त्रियोंके पांच गुणस्थान सिद्ध नहीं हो सकेंगे और जो प्रो० हीरालालजी कह रहे हैं उसका तथा श्वेताम्बर मान्यताका अनुषंग आवेगा। अतः प्रस्तुत ९३वें सूत्रको 'सजद' पदसे रहित मानना चाहिये और उसे द्रव्यस्त्रियोंके पांच गुणस्थानोंका विधायक पमझना चाहिये । उक्त युक्तियोंपर विचार
१. षट्खण्डागमके इस प्रकरणको जब हम गोरसे देखते हैं तो वह द्रव्यका प्रकरण प्रतीत नहीं होता मूलग्रन्थ और उसकी टीकामें ऐसा कोई उल्लेख अथवा संकेत उपलब्ध नहीं है जो वहाँ द्रव्यका प्रकरण सूचित करता हो। विद्वद्वर्य पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने हाल में 'जैन बोधक' वर्ष ६२, अंक १७ और १९में अपने दो लेखों द्वारा द्रव्यका प्रकरण सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। उन्होंने मनुष्यगति सम्बन्धी उन पांचों ही ८९, ९०, ११, ९२, ९३ --सूत्रोंको द्रव्य प्ररूपक बतलाया है । परन्तु हमें ऐसा जरा भी कोई स्रोत नहीं मिलता, जिससे उसे 'द्रव्यका ही प्रकरण' समझा जा सके। हम उन पाँचों सत्रोंको उत्थानिका वाक नीचे देते हैं :
"मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाह
मणुस्सा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजद-सम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।।८९॥
तत्र शेषगुणस्थानसत्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाहसम्मामिच्छाइट्रि-संजदासंजद-संजद-ट्राणे णियमा पज्जता ।।९।। मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थमाहएवं मणुस्सपज्जत्ता ।।९।। मानुषीषु निरूपणार्थमाह
मणुसिणीसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ ।।९।।
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