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और लगभग ९ मीलकी दूरीपर और बूँदीसे लगभग ३ मील दूर चर्मण्वती (चम्बल) नदीपर अवस्थित वर्तमान 'केशोराय पाटण' अथवा 'पाटण केशोराय' ही है। प्राचीन कालमें यह राजा भोजदेव के परमारसाम्राज्य के अन्तर्गत मालवा में रहा है । निसर्गरमणीय यह स्थान आश्रम-भूमि (तपोवन) के उपयुक्त होने के कारण वास्तव में 'आश्रम' कहलानेका अधिकारी है । नदीके किनारे होनेसे यह बड़ा भव्य, शान्त और मनोज्ञ है । इसकी प्राकृतिक सुषमा बहुत ही आकर्षक है । सम्भवतः इसी कारण यह जैनों (दिगम्बरों) के अतिरिक्त हिन्दुओं का भी तीर्थ है । दिगम्बर- साहित्य में इसके दिगम्बर तीर्थ होने के प्रचुर उल्लेख विक्रमको १२वीं १३वीं शताब्दीसे मिलते हैं और जैनेतर साहित्य में इसके हिन्दू तीर्थ होनेके निर्देश विक्रमकी १५वीं - १६वीं शताब्दीस उपलब्ध होते हैं । पाण्डवाजीके कथनानुसार आज भी वहाँ (पाटण केशाराय कस्बा में ) चम्बल नदी किनारे बहुत विशाल लगभग ४० फुट ऊँचा भव्य जैन मन्दिर है । मन्दिरका एक भाग सुदृढ़ नीव है, जिससे मन्दिरको पानी से कभी क्षति न पहुँचे । दूसरे भाग में शाला, कोठे आदि बने हुए हैं, जहाँ बहुसंख्या में बाहर से यात्री आते व ठहरते हैं और दर्शन, पूजन करके मनोरथ पूरा होने हेतु गण भोज भी किया करते हैं । श्रीमुनिसुव्रती दिगम्बरीय प्रतिमा मन्दिर के ऊपरी भाग में भूगर्भ में विराजमान है । पृथ्वीतलसे नीचे होने के कारण जनता इस प्राचीन मन्दिरको 'भुई देवरा' भौंयरा) कहती है ।" डा० शर्माके सूचनानुसार रणथंभोरके राजा हठीले हम्मीर के पिता जैसिंहने पुत्रको राज्य देकर आश्रमपत्तन के पवित्र तीर्थ के लिए प्रयाण किया था । तथा रणथंभोरेश्वर हम्मीरने राजधानीमें यज्ञ न कर इसी महान् तीर्थपर आकर 'कोटिमख' किया था । किन्तु प्रतीत होता है कि १६वीं शताब्दीकी जनता इसे आश्रमपत्तन या आश्रमनगर न कहकर पत्तन या पट्टन या पुटभेदन कहने लगी थीं ।
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इस तरह आश्रमनगर" जैनोंके साथ हिन्दुओं का भी पावन तीर्थस्थान है । श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवने ऐसे महत्वपूर्ण एवं प्राकृतिक सुषमासे सम्पन्न शान्त स्थानको साहित्य-सृजन, ज्ञानाराधन और ध्यान आदिके लिए चुना हो, तो कोई आश्चर्य नहीं हैं ।
(ज) रचनाएँ
जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है कि श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवकी दो ही रचनाएँ उपलब्ध हैं - एक लघुद्रव्यसंग्रह और दूसरी बृहद्रव्यसंग्रह । इन दोके अलावा उनकी और कोई कृति प्राप्त नहीं है। उनके प्रभावको
१. डा० शर्मा के उल्लिखित लेखमें उद्धृत 'आर्काएलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डियाकी १९०४-५ को प्रोग्रेस रिपोर्ट |
२. नयचन्द्रसूरि, हम्मीरमहाकाव्य ८ - १०६ ।
३. चन्द्रशेखर, सुर्जनचरितमहाकाव्य ११ - ५८
४. वही, ११-२२ ।
५. सन् १९४९में मदनकीर्ति की शासनचतुस्त्रिशिकाके सम्पादन समय उसके उल्लेख (पद्य २८) में आये आश्रम पदसे आश्रमनगरकी ओर मेरा ध्यान नहीं गया था और उसके तृतीय चरण में विद्यमान 'विप्रजनावरोधन गरे' शब्दोंपर से अवरोधनगरकी कल्पना की थी, जो ठीक नहीं थी । वहाँ 'आश्रम' से आश्रमनगर मदनकीतिको इष्ट है, इसकी ओर हमारा ध्यान पं० दीपचन्द्रजी पांड्याके उस लेखने आकर्षित किया है, जो उन्होंने वीरवाणी ( स्मारिका ) वर्ष १८, अंक १३ में प्रकाशित किया है और जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। इसके लिए हम उनके आभारी हैं । - लेखक ।
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