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१. पहला अधिकार 'षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय-प्रतिपादक' नामका है । इसमें तीन अन्तराधिकार हैं और
गाथाएँ हैं । प्रथम अन्तराधिकारमें चउदह गाथाओंद्वारा जीवद्रव्यका, द्वितीय अन्तराधिकारमें आठ गाथाओंद्वारा पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन पाँच अजीवद्रव्योंका और तीसरे अन्तराधिकारमें पाँच गाथाओंद्वारा जीव, पदगल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पांच अस्तिकायोंका कथन है। प्रथम अन्तरा धिकारकी चउदह गाथाओंमें भी पहली गाथाद्वारा मङ्गलाचरण तथा श्रीऋषभजिनेन्द्र-प्रतिपादित जीव और अजीव इन मूल दो द्रव्योंका नाम-निर्देश किया गया है। दूसरी गाथाद्वारा जीवद्रव्यके जीवत्व, उपयोगमयत्व, अमत्ति कत्तत्व, स्वदेहपरिमितत्व, भोक्तत्व, संसारित्व, सिद्धत्व और विस्रसा ऊर्ध्वगमन ये नौ अधिकार (वर्णन-प्रकार) गिनाये गये हैं। तीसरी गाथासे लेकर चउदहवीं गाथा तक बारह गाथाओंद्वारा उक्त अधिकारोंके माध्यमसे जीवका स्वरूप वर्णित किया है।
२. दूसरा अधिकार 'सप्ततत्त्व-नवपदार्थप्रतिपावक' नामका है। इसमें दो अन्तराधिकार हैं तथा ग्यारह गाथाएँ है। प्रथम अन्तराधिकारमें अट्ठाईसवीं गाथासे लेकर सैंतीसवीं गाथा तक दस गाथाओं द्वारा जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका और दूसरे अन्तराधिकारमें अड़तीसवीं गाथाद्वारा उक्त सात तत्त्वोंमें पुण्य तथा पापको मिलाकर हुए नौ पदार्थोंका स्वरूप-कथन है ।
३. तीसरा अधिकार 'मोक्षमार्ग-प्रतिपादक' नामका है। इसमें भी दो अन्तराधिकार है और बीस गाथाएँ हैं। प्रथम अन्तराधिकारमें उनतालीसवीं गाथासे लेकर छियालीसवीं गाथा तक आठ गाथाओंद्वारा व्यवहार और निश्चय दो प्रकारके मोक्षमार्गोका प्रतिपादन है। यतः ये दोनों मोक्षमार्ग ध्यानद्वारा ही योगीको प्राप्त होते हैं, अतः इसी अधिकार के अन्तर्गत दूसरे अन्तराधिकारमें सैंतालीसवीं गाथासे लेकर सत्तावनवीं गाथा तक ग्यारह गाथाद्वारा ध्यान और ध्येय (ध्यानके आलम्बन) पाँच परमेष्ठियोंका भी संक्षेपमें प्ररूपण है । अन्तिम अण्ठावनवों गायाद्वारा, जो स्वागताछन्दमें है, ग्रन्थकर्त्ताने अपनी लघुता एवं निरहंकारवृत्ति प्रकट की है।
___ इस तरह मुनि श्री नेमिचन्द्रने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थमें बहुत ही थोड़े शब्दों-केवल अण्ठावन (५८) गाथाओंद्वारा विपुल अर्थ भरा है। जान पड़ता है कि इसीसे यह इतना प्रामाणिक और लोकप्रिय हुआ है कि उत्तरवर्ती लेखकोंने उसे सबहुमान अपनाया है । इसके संस्कृत-टीकाकार श्रीब्रह्मदेवने इसकी गाथाओंको 'सूत्र' और इसके कर्ताको 'भगवान्' कहकर उल्लेखित किया है । पण्डितप्रवर आशाधरजीने अनगारधर्मामृत की स्वोपज्ञ टोकामें इसकी गाथाओंको उद्धृत करके उनसे अपने वर्ण्यविषयको प्रमाणित एवं पुष्ट किया है। भाषा-वचनिकाकार पं० जयचन्दजीने भी ग्रन्थके महत्त्वको अनुभव करके उसपर संक्षिप्त, किन्तु विशद वनिका लिखी है। पं० जयचन्दजी वनिका लिखकर ही सन्तुष्ट नहीं हुए, उसपर द्रव्यसंग्रह-भाषा अर्थात् हिन्दी-पद्यानुवाद भी उन्होंने लिखा है, जो गाथाके पूरे अर्थको एक-एक चौपाई द्वारा बड़े अच्छे
१. भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति'--संस्कृत-टीका पृष्ठ ४; 'अत्र सूत्रे'-वही पृ० २१; 'सूत्रं गतम्'
वही पृ० २३; 'तिष्ठन्तीत्यभिप्रायो भगवतां श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवानामिति'-वही पृ० ५८; 'अत्राह सोमाभिधानो राजश्रेष्ठी । भगवन् ? .. '-वही पृ० ५८; 'भगवानाह'-वही पृ० ५९; 'अत्राह सोमनामराजश्रेष्ठी। भगवन् !....'--वही पृ० १४९; 'भगवानाह'-वही पृ० १४९; 'भगवान् सूत्रमिदं
प्रतिपादयति'-वही पृ० २०९; २२३; 'भगवन्'-वही पृ० २२९, २३१ । २. देखिए, अनगारधर्मामृतटीका पृष्ठ ४, १०९, ११२, ११६, २०४ आदि । पृ० ११८ पर तो 'तथा
चोक्तं द्रव्यसंग्रहेऽपि' कहकर उसकी 'सव्वस्स कम्मणो' आदि गाथा उद्धृत की गई है।
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