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के बीच में 'निराश्रया श्रीः' यह पद्य फिर शायद न आता । छायामें मूल ही तो आता है। यही कारण है कि इस पदको शास्त्रीजी और प्रेमीजी दोनों विद्वानोंने पूर्वोल्लिखित गद्यमें उद्धृत नहीं किया-उसे अलग करके
और 'अद्य' को 'निराधारा धरा' के साथ जोड़कर उपस्थित किया है ! अतः यह दूसरी बाधा भी उपरोक्त समयको बाधक नहीं है। (ख) पुष्पसेन और ओडयदेव
___ वादीभसिंहके साथ पुष्पसेन मुनि और ओडयदेवका सम्बन्ध बतलाया जाता है । पुष्पसेनको उनका गुरु और ओडयदेव उनका जन्म नाम अथवा वास्तव नाम कहा जाता है। इसमें निम्न पद्य प्रमाणरूपमें दिये जाते हैं
पुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो, दिव्यो मनुहृदि सदा मम संनिदध्यात्। यच्छक्तितः प्रकृतमूढमतिर्जनोऽपि, वादीभसिंहमुनिपुङ्गवतामुपैति ।। श्रीमद्वादीभसिंहेन गद्यचिन्तामणिः कृतः । स्थेयादोडयदेवेन चिरायास्थानभूषणः ॥ स्थेयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः।
गद्यचिन्तामणिलॊके चिन्तामणिरिवापरः ।। इनमें पहला पद्य गद्यचिन्तामणिकी प्रारम्भिक पीठिकाका छठा पद्य है और जो स्वयं ग्रन्थकारका रचा हुआ है। इस पद्यमें कहा गया है कि वे प्रसिद्ध पुष्पसेन मुनीन्द्र दिव्य मनु-पूज्य गुरु मेरे हृदय में सदा आसन जमाये रहें-वर्तमान रहें जिनके प्रभावसे मुझ जैसा निपट मूर्ख साधारण आदमी भी वादीभसिंह मुनिश्रेष्ठ अथवा वादीभसिंहसूरि बन गया ।' अतः यह असंदिग्ध है कि वादीभसिंह सूरिके गुरु पुष्पसेन मुनि थे-उन्होंने उन्हें मूर्खसे विद्वान और साधारण जनसे मुनिश्रेष्ठ बनाया था और इसलिए वे वादीभसिंहके दीक्षा और विद्या दोनोंके गुरु थे।
अन्तिम दोनों पद्य, जिनमें ओडयदेवका उल्लेख है, मझे वादीभसिंहके स्वयंके रचे नहीं मालूम होते, क्योंकि प्रथम तो जिस प्रशस्तिके रूपमें वे पाये जाते हैं वह प्रशस्ति गद्य चिन्तामणिकी सभी प्रतियोंमें उपलब्ध नहीं है-सिर्फ तजोरकी दो प्रतियोंमेसे एक ही प्रतिमें वह मिलती है। इसीलिये मद्रित गद्य चिन्तामणिके अन्तमें वे अलगसे दिए गए हैं, और श्रीकुप्पूस्वामी शास्त्रीने फुटनोटमें उक्त प्रकारकी सूचना की है। दूसरे, प्रथम श्लोकका पहला पाद और दूसरे श्लोकका दूसरा पाद, तथा पहले श्लोक का तीसरा पाद और दूसरे श्लोकका तीसरा पाद तथा पहले श्लोकका तीसरा पाद और दूसरे श्लोकका पहला पाद परस्पर अभिन्न हैं
-पुनरुक्त हैं-उनसे कोई विशेषता जाहिर नहीं होती और इसलिये ये दोनों शिथिल पद्य वादीभसिंह जैसे उत्कृष्ट कविकी रचना ज्ञात नहीं होते। तीसरे, वादीभसिंहसरिकी प्रशस्ति देनेकी प्रकृति और परिणति भी प्रतीत नहीं होती। उनकी क्षत्रचूडामणिमें भी वह नहीं है और स्याद्वादसिद्धि अपूर्ण है, जिससे उसके बारेमें कुछ कहा नहीं जा सकता। अतः उपर्युक्त दोनों पद्य हमें अन्यद्वारा रचित एवं प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं और इसलिए ओडयदेव वादीभसिंहका जन्म नाम अथवा वास्तव नाम था, यह विचारणीय है । हां, वादीभसिंहका जन्म नाम व असली नाम कोई रहा जरूर होगा। पर वह क्या होगा, इसके साधनका कोई दूसरा पुष्ट प्रमाण ढूँढ़ना चाहिए। (ग) वादीभसिंहकी प्रतिभा और उनकी कृतियाँ
आचार्य जिनसेन तथा वादिराज जैसे प्रतिभाशाली विद्वानों एवं समर्थ ग्रन्थकारोंने आचार्य वादीभसिंह की प्रतिभा और विद्वत्तादि गुणोंका समुल्लेख करते हुए उनके प्रति अपना महान् आदरभाव प्रकट किया
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