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इससे हम इस नतीजेपर पहुँचते हैं कि यदि वादीसिंह न्यायमञ्जरीकार जयन्तभट्टके उत्तरवर्ती होते तो सम्भव था कि वे उनका अन्य उत्तरकालीन विद्वानों की तरह जरूर अनुसरण करते-'भारताध्ययन सव' इत्यादिको ही अपनाते और उस हालतमें 'पिटकाध्ययनं सर्व' इस नई कारिकाको जन्म न देते। इससे ज्ञात होता है कि वादीभसिंह न्यायमञ्जरीकारके उत्तरवर्ती विद्वान् नहीं हैं। न्यायमञ्जरीकारका समय ई० ८४० के लगभग माना जाता है । अतः वादीभसिंह इनसे पहलेके हैं ।
४. आ० विद्यानन्दने आप्तपरीक्षामें जगत्कर्तृत्वका खण्डन करते हुए ईश्वरको शरीरी अथवा अशरीरी माननेमें दूषण दिये हैं और उसको विस्तृत मीमांसा को है । उसका कुछ अंश टीका सहित नीचे दिया जाता है
'महेश्वरस्याशरीरस्य स्वदेहनिर्माणानुपपत्तेः । तथा हिदेहान्तराद्विना तावत्स्वदेहं जनयद्यदि । तदा प्रकृतकार्येऽपि देहाधानमनर्थकम् ॥१८॥ देहान्तरात्स्वदेहस्य विधाने चानवस्थितिः ।
तथा च प्रकृतं कार्यं कुर्यादीशो न जातुचित् ।।१९।। यथैव हि प्रकृतकार्यजननायापूर्वशरीरमीश्वरो निष्पादयति तथैव तच्छरीरनिष्पादनायापूर्वशरीरान्तरं निष्पादयेदिति कथमनवस्थां विनिवार्यत?
यथाऽनीशः स्वदेहस्य कर्ता देहान्तरान्मतः । पूर्वस्मादित्यनादित्वान्नानवस्था प्रसज्यते ॥२१॥ तथेशस्यापि पूर्वस्माद्देहाद्देहान्तरोद्भवात्। नानवस्थेति यो ब्रूयात्तस्यानीशत्वमीशितुः ।।२२।। अनीशः कर्मदेहेनाऽनादिसन्तानवतिना।
यथैव हि सकर्माणस्तद्वन्न कथमीश्वरः ॥२३॥ प्रायः यही कथन वादीभसिंहने स्याद्वादसिद्धिको सिर्फ ढाई कारिकाओं में किया है और जिसका पल्लवन एवं विस्तार उपर्युक्त जान पड़ता है । वे ढाई कारिकाएँ ये हैं
देहारम्भोऽप्यदेहस्य वक्तृत्ववदयुक्तिमान् । देहान्तरेण देहस्य यद्यारम्भोऽनवस्थितिः ।। अनादिस्तत्र बन्धश्चेत्त्यक्तोपात्तशरीरता। अस्मादादिवदेवाऽस्य जातु नैवाशरीरता ॥
देहस्यानादिता स्यादेतस्यां च प्रमात्ययात् । -६-१०,११३ । इन दोनों उद्धरणोंका मिलान करनेसे ज्ञात होता है कि वादीभसिंहका कथन जहाँ संक्षिप्त है वहाँ विद्यानन्दका कथन कुछ विस्तारयुक्त है। इसके अलावा, वादीभसिंहने प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि में अनेकान्तके युगपदनेकान्त और क्रमानेकान्त ये दो भेद प्रदर्शित करके उनका एक-एक स्वतन्त्र प्रकरण द्वारा विस्तारसे वर्णन किया है। विद्यानन्दने भी श्लोकवार्तिक (१०४३८) में अनेकान्तके इन दो भेदोंका उल्लेख किया है ।
१. देखो, न्यायकु०, द्वि० भा०, प्र० पृ० १६ !
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