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'यतोऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धिः स धर्मः । स च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः । अधर्मस्तु तद्विपरीतः।'
-गद्य० पृ० २४३ । (ग) 'तदुपायं ततो वक्ष्ये न हि कार्यमहेतुकम् ॥१-२।।
न ह्यवास्तवतः कार्ये कल्पिताग्नेश्च दाहवत् ।२-४८॥ न हि स्वान्यातिकृत्वं स्याद्विरागे विश्ववेदिनि ॥७-२२॥ सत्येवात्मनि धर्मे च सौख्योपाये सुखार्थिभिः ।
धर्म एव सदा कार्यो न हि कार्यमकारणे ।।१-२४।। -स्याद्वा० । इन तुलनात्मक कुछ उद्धरणोंपरसे सम्भावना होती है कि क्षत्रचूडामणि तथा गद्यचिन्तामणिके कर्ता वादीभसिंहसूरि और स्याद्वादसिद्धिके कर्ता वादीभसिंहसूरि अभिन्न हैं--एक ही विद्वान्की ये तीनों कृतियाँ
। इन कृतियोंसे उनकी उत्कृष्ट कवि. उत्कृष्ट वादी और उत्कृष्ट दार्शनिककी ख्याति और प्रसिद्धि भी यथार्थ जंचती है। द्वितीय वादीभसिंहकी भी जो इसी प्रकारकी ख्याति और प्रसिद्धि शिलालेखोंमें उल्लिखित पाई जाती है और जिससे विद्वानोंको यह भ्रम हुआ है कि वे दोनों एक हैं वह हमें प्रथम वादोभसिंहकी छाप (अनुकृति) जान पड़ती है। इस प्रकारके प्रयत्नके जैन साहित्यमें अनेक उदाहरण मिलते हैं । तत्त्वार्थश्लोकवातिक आदि महान् दार्शनिक ग्रंथोंके कर्ता आचार्य विद्यानन्दकी जैनसाहित्यमें जो भारी ख्याति और प्रसिद्धि है वैसी ही ख्याति और प्रसिद्धि ईसाको १६वीं शताब्दामें हुए एक दुसरे विद्यानन्दिकी हुम्बुच्चके शिलालेखों और वर्तमानमुनीन्द्रके दशभक्त्यादिमहाशास्त्रमें वणित मिलती है और जिससे विद्वानोंको इन दोनोंके ऐक्यमें भ्रम हुआ है, जिसका निराकरण विद्यानन्दकी स्वोपज्ञ टीका सहित 'आप्त-परीक्षा की प्रस्तावनामें किया गया है। हो सकता है कि प्रथम नामवाले विद्वान्को तरह उसी नामवाले दूसरे विद्वान् भी प्रभावशाली रहे हों। अतः ८वीं-९वीं शताब्दीसे १२वीं शताब्दी तक विभिन्न वादीभसिंहोंका अस्तित्व मानना चाहिए। यहां यह उल्लेखनीय है कि उक्त ग्रंथोंके कर्ता वादीभसिंहके कवि और स्याद्वादी होनेके उनके ग्रन्थोंमें प्रचुर बीज भी मिलते हैं।
अब इनके समयपर विचार किया जाता है ।
१. स्वामीसमन्तभद्ररचित रत्नकरण्डक और आप्तमीमांसाका क्रमशः क्षत्रचूड़ामणि और स्याद्वादसिद्धिपर स्पष्ट प्रभाव है । यथा(क) श्वाऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म-किल्विषात् ।
-रत्नकरण्ड०, श्लोक २९ । देवता भविता श्वापि देवः श्वा धर्म-पापतः ।
-क्षत्रचूडामणि ११-७७ (ख) कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । आप्त, मी०, श्लो० ८॥ कुशलाकुशलत्वं च न चेत्त दातृहिंस्रयोः ।। ।
-स्या० ३-५०। अतः वादीभसिंहसरि स्वामी समन्तभद्रके पश्चाद्वर्ती विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दीके बादके विद्वान् हैं।
१. देखो, प्रस्तावना पृ० ८ ।
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