________________
क्षण परस्पर विलक्षण और भिन्न-भिन्न माने गये हैं । अन्यथा पिता और पुत्रमें भी ज्ञानरूपसे सादृश्य होनेसे एक सन्तति के माननेका प्रसङ्ग आवेगा । दूसरा पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि बौद्धोंके यहाँ देश और काल कल्पित माने गये हैं और तब उनकी अपेक्षासे होनेवाला नैरन्तर्य भी कल्पित कहा जायगा, किन्तु कल्पितसे कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है अन्यथा कल्पित अग्निसे दाह और मिथ्या सर्पदंशसे मरणरूप कार्य भी हो जाने चाहिए, किन्तु वे नहीं होते । एक कार्यको करनारूप सन्तति भी नहीं बनती; क्योंकि क्षणिकवाद में उस प्रकारका ज्ञान ही सम्भव नहीं है । यदि कहा जाय कि एकत्ववासनासे उक्त ज्ञान हो सकता है अर्थात् जहाँ 'सोऽहं '--' वही मैं हूँ' इस प्रकारका ज्ञान होता है वहीं उपादानोपादेयरूप सन्तति मानी गई है और उक्त ज्ञान एकत्ववासनासे होता है, तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि उसमें अन्योन्याश्रय नामका दोष आता है । वह इस प्रकार है- जब एकत्वज्ञान सिद्ध हो तब एकत्ववासना बने और जब एकत्ववासना बन जाय तब एकत्वज्ञान सिद्ध हो। और इस तरह दोनों ही असिद्ध रहते हैं । केवल कार्य-कारणरूपतासे सन्तति मानना भी उचित नहीं है, अन्यथा बुद्ध और संसारियों में भी एक सन्तानका प्रसङ्ग आवेगा, क्योंकि उनमें कार्य - कारणभाव है--वे बुद्धके द्वारा जाने जाते हैं और यह नियम है कि जो कारण नहीं होता वह ज्ञानका विषय भी नहीं होता -- अर्थात् जाना नहीं जाता । तात्पर्य यह कि कारण ही ज्ञानका विषय होता है और संसारी बुद्धके विषय होने से वे कारण है तथा बुद्धचित्त उनका कार्य है अतः उनमें भी एक सन्ततिका प्रसंग आता है ।
अतः आत्माको सर्वथा क्षणिक और निरन्वय माननेपर धर्म तथा धर्मफल दोनों ही नहीं बनते, किन्तु उसे कथंचित् क्षणिक और अन्वयी स्वीकार करने से वे दोनों बन जाते हैं । 'जो मैं वाल्यावस्था में था वही उस अवस्थाको छोड़कर अब मैं युवा हूँ।' ऐसा प्रत्यभिज्ञान नामका निर्बाध ज्ञान होता है और जिससे आत्मा कथंचित् नित्य तथा अनित्य प्रतीत होता है और प्रतीतिके अनुसार वस्तुकी व्यवस्था है ।
३. युगपदनेकान्तसिद्धि
एक साथ तथा क्रमसे वस्तु अनेकधर्मात्मक है, क्योंकि सन्तान आदिका व्यवहार उसके बिना नहीं हो सकता । प्रकट है कि बौद्ध जिस एक चित्तको कार्यकारणरूप मानते हैं और उसमें एक सन्ततिका व्यवहार करते हैं वह यदि पूर्वोत्तर क्षणोंकी अपेक्षा नानात्मक न तो न तो एक चित्त कार्य एवं कारण दोनोंरूप हो सकता है और न उसमें सन्ततिका व्यवहार ही बन सकता है ।
बौद्ध-- बात यह है कि एक चित्त में जो कार्यकारणादिका भेद माना गया है वह व्यावृत्तिद्वारा, जिसे अपोह अथवा अन्यापोह कहते हैं, कल्पित है वास्तविक नहीं ?
जैन - उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि व्यावृत्ति अवस्तुरूप होनेसे उसके द्वारा भेदकल्पना सम्भव नहीं है । दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्षादिसे उक्त व्यावृत्ति सिद्ध भी नहीं होती, क्योंकि वह अवस्तु है और प्रत्यक्षादिकी वस्तुमें ही प्रवृत्ति होती हैं ।
बौद्ध--- ठीक है कि प्रत्यक्ष से व्यावृत्ति सिद्ध नहीं होती, पर वह अनुमानसे अवश्य सिद्ध होती है और इसलिये वस्तु व्यावृत्ति - कल्पित ही धर्मभेद है ?
जैन -- नहीं, अनुमानसे व्यावृत्तिको सिद्धि मानने में अन्योन्याश्रय नामका दोष आता है । वह इस तरहसे है -- व्यावृत्ति जब सिद्ध हो तो उससे अनुमानसम्पादक साध्यादि धर्मभेद सिद्ध हो और जब साध्यादि धर्मभेद सिद्ध हो तब व्यावृत्ति सिद्ध हो । अतः अनुमानसे भी व्यावृत्तिकी सिद्धि सम्भव नहीं है । ऐसी स्थिति में उसके द्वारा धर्मभेदको कल्पित बतलाना असंगत है ।
बौद्ध - विकल्प व्यावृत्तिग्राहक है, अतः उक्त दोष नहीं है ?
Jain Education International
२९५
3
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org