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प्रन्थका उद्देश्य--संसारके सभी जीव सूख चाहते हैं, परन्तु उसका उपाय नहीं जानते । अतः प्रस्तुत ग्रन्थद्वारा सुखके उपायका कथन किया जाता है क्योंकि बिना कारणके कोई भी कार्य उत्पन्न नहीं होता।
ग्रन्थारम्भ--यदि प्राणियोंको प्राप्त सुख-दुखादिरूप कार्य बिना कारणके हों तो किसीको ही सुख और किसीको ही दुःख क्यों होता है, सभीको केवल सूख ही अथवा केवल दुःख ही क्यों नहीं होता ? तात्पर्य यह कि संसारमें जो सुखादिका वैषम्य-कोई सुखी और कोई दुखी-देखा जाता है वह कारणभेदके बिना सम्भव नहीं है।
तथा कोई कफप्रकृतिवाला है, कोई वातप्रकृतिवाला है और कोई पित्तप्रकृतिवाला है सो यह कफादिकी विषमतारूप कार्य भी जीवोंके बिना कारणभेदके नहीं बन सकता है और जो स्त्री आदिके सम्पर्कसे सुखादि माना जाता है वह भी बिना कारणके असम्भव है, क्योंकि स्त्री कहीं अन्तक-- घातकका भी काम करती हुई देखी जाती है--किसीको वह विषादि देकर मारनेवाली भी होती है।
__ क्या बात है कि सर्वाङ्ग सुन्दर होनेपर भी कोई किसीके द्वारा ताड़न-वध-बन्धनादिको प्राप्त होता है और कोई तोता, मैना आदि पक्षी अपने भक्षकोंद्वारा भी रक्षित होते हए बड़े प्रेमसे पाले-पोष जाते हैं ।
अतः इन सब बातोंसे प्राणियोंके सुख-दुःखके अन्तरङ्ग कारण धर्म और अधर्म अनुमानित होते हैं । वह अनुमान इस प्रकार है--धर्म और अधर्म है, क्योंकि प्राणियों को सुख अथवा दुःख अन्यथा नहीं हो सकता।' जैसे पुत्रके सद्भावसे उसके पितारूप कारणका अनुमान किया जाता है।
चार्वाक-अनुमान प्रमाण नहीं है, क्योंकि उसमें व्यभिचार (अर्थक अभावमें होना) देखा जाता
जेन-यह बात तो प्रत्यक्षमें भी समान है, क्योंकि उसमें भी व्यभिचार देखा जाता है--सीपमें चांदीका, रज्जमें सर्पका और बालोंमें कीड़ोंका प्रत्यक्षज्ञान अर्थक अभावमें भी देखा गया है और इसलिए
तथा अनमान में कोई विशेषता नहीं है जिससे प्रत्यक्षको तो प्रमाण कहा जाय और अनुमानको अप्रमाण ।
चार्वाक--जो प्रत्यक्ष निर्बाध है वह प्रमाण माना गया है और जो निर्बाध नहीं है वह प्रमाण नहीं माना गया । अतएव सीपमें चांदीका आदि प्रत्यक्षज्ञान निधि न होनेसे प्रमाण नहीं है ? ।
जैन--तो जिस अनुमानमें बाधा नहीं है--निर्बाध है उसे भी प्रत्यक्षकी तरह प्रमाण मानिये, क्योंकि प्रत्यक्ष विशेषकी तरह अनुमानविशेष भी निधि सम्भव है। जैसे हमारे सद्भावसे पितामह (बाबा) आदिका अनुमान' निर्बाध माना जाता है।
इस तरह अनुमानके प्रमाण सिद्ध हो जानेपर उसके द्वारा धर्म और अधर्म सिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि कार्य कर्ताकी अपेक्षा लेकर ही होता है--उसकी अपेक्षा लिये बिना वह उत्पन्न नहीं होता और तभी वे धर्माधर्म सुख-दुःखादिके जनक होते हैं । अतः अर्थापत्तिरूप अनुमान प्रमाणसे हम सिद्ध करते हैं कि--'धर्मादिका कर्ता जीव है, क्योंकि सुखादि अन्यथा नहीं हो सकता।' प्रकट है कि जीवमें धर्मादिसे सुखादि होते हैं, अतः वह उनका कर्ता है, था और आगे भी होगा और इस तरह परलोकी नित्य आत्मा (जीव) सिद्ध होता है।
१. 'हमारे पितामह, प्रपितामह आदि थे, क्योंकि हमारा सद्भाव अन्यथा नहीं हो सकता था।'
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