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________________ विषयभेद तथा प्रशस्तपादभाष्य आदिमें प्रतिपत्ताभेदसे अनुमान-भेदका प्रतिपादन ज्ञात होता है । साधन अनेक हो सकते हैं, जैसा कि प्रशस्तपादने' कहा है, अतः अनमानके भेदोंकी संख्या पाँचसे अधिक भी हो सकती है। न्यायसूत्रकार आदिकी दृष्टि में चूँकि अनुमेय या तो कार्य होगा, या कारण या अकार्यकारण । अतः अनुमेयके वैविध्यसे अनुमान त्रिविध है । प्रशस्तपाद द्विविध प्रतिपत्ताओंकी द्विविध प्रतिपत्तियोंकी दृष्टिसे अनुमानके स्वार्थ और परार्थ दो ही भेद मानते हैं जो बुद्धिको लगता है, क्योंकि अनुमान एक प्रकारकी प्रतिपत्ति है और बह स्व तथा पर दोके द्वारा की जाती है । सम्भवतः इसीसे उत्तरकालमें अनुमानका स्वार्थपरार्थद्वैविध्य सर्वाधिक प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुआ। अनुमानावयव : अनुमानके तीन उपादान हैं, जिनसे वह निष्पन्न होता है-१, साधन, २. साध्य और ३. धर्मी। अथवा १. पक्ष और २. हेतु ये दो उसके अंग हैं, क्योंकि साध्यधर्म विशिष्ट धर्मोको पक्ष कहा गया है । अतः पक्षको कहनेसे धर्म और धर्मी दोनोंका ग्रहण हो जाता है । साधन गमकरूपसे उपादान है, साध्य गम्यरूपसे और धर्मी साध्यधर्मके आधाररूपसे, क्योंकि किसी आधार-विशेष में साध्यकी सिद्धि करना अनुमानका प्रयोजन है। सच यह है कि केवल धर्मको सिद्धि करना अनुमानका ध्येय नहीं है, क्योंकि वह व्याप्ति-निश्वयकालम ही अवगत हो जाता है और न केवल धर्मीकी सिद्धि अनमानके लिये अपेक्षित है, क्योंकि वह सिद्ध रहता है । किन्तु 'पर्वत अग्निवाला है' इस प्रकार पर्वतमें रहने वाली अग्निका ज्ञान करना अनुमानका लक्ष्य है। अतः धर्मी भी साध्यधर्मके आधाररूपसे अनुमानका अंग है। इस तरह साधन, साध्य और धर्मी ये तीन अथवा पक्ष और हेतु ये दो स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान दोनोंके अंग है । कुछ अनुमान ऐसे भी होते हैं जहाँ धर्मी नहीं होता । जैसे-सोमवारसे मंगलवारका अनुमान आदि । ऐसे अनुमानोंमें साधन और साध्य दो ही अंग है। उपर्युक्त अंग स्वार्थानुमान और ज्ञानात्मक परार्थानमानके कहे गये हैं। किन्तु वचनप्रयोग द्वारा प्रतिवादियों या प्रतिपाद्योंको अभिधेय-प्रतिपत्ति कराना जब अभिप्रेत होता है तब वह वचन प्रयोग परार्थानमान-वाक्यके नामसे अभिहित होता है और उसके निष्पादक अंगोंवो अवयव कहा गया है । परार्थानुमानवाक्यके कितने अवयव होने चाहिए, इस सम्बन्धमें ताकिकोंके विभिन्न मत है । न्यायसूत्रकार का मत है कि परार्थानुमान वाक्यके पाँच अवयव है-१. प्रतिज्ञा २. हेतु, ३. उदाहरण, ४. उपनय और ५. निगमन । भाष्यकारने" सूत्रकारके इस मतका न केवल समर्थन ही किया है, अपितु अपने कालमें प्रचलित दशावयवमान्यताका निरास भी किया है। वे दशावयव हैं-उक्त ५ तथा ६. जिज्ञासा, ७. संशय, ८. शक्यप्राप्ति, ९. प्रयोजन और १०. संशयव्युदास । यहाँ प्रश्न है कि ये दश अवयव किनके द्वारा माने गये हैं ? भाप्यकारने उन्हें 'दशावयवानेके नयायिका वाक्ये संचक्षते' शब्दों द्वारा 'किन्हीं नैयायिकों' की मान्यता बतलाई है । पर मूल प्रश्न असमाधेय ही रहता है। हमारा अनुमान है कि भाष्यकारको 'एके नैयायिकाः' पदसे प्राचीन सांख्यविद्वान् युक्तिदीपिकाकार १. प्रश० भा० पृ० १०४ । २. धर्मभूषण, न्यायदी० तृ० प्रकाश पृ० ७२ । ३. वही, पृष्ठ ७२-७३ । ४. न्यायसू० १।१।३२ । ५-६. न्याभा० १११।३२, पृष्ठ ४७ । - २६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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