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________________ मानते हैं । पर उद्योतकर न केवल उसकी ही आलोचना करते हैं, अपितु द्विलक्षणकी भी मीमांसा करते हैं ।' किन्तु सूत्रकारोक्त एवं भाष्यकार समर्थित द्विलक्षण, त्रिलक्षणके साथ चतुर्लक्षण और पंचलक्षण हेतु उन्हें इष्ट है । अन्वयव्यतिरेकी में पंचलक्षण और केवलान्वयी तथा केवलव्यतिरेकी में चतुर्लक्षिण घटित होता है । यहाँ उद्योतकरकी विशेषता यह है कि वे न्यायभाष्यकार की आलोचना करनेसे भी नहीं चूकते । वात्स्या यनने ' तथा वैधम्र्म्यात्" इस वैधर्म्य प्रयुक्त हेतुलक्षणका उदाहरण साधर्म्य प्रयुक्त हेतुलक्षणके उदाहरण 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' को ही प्रस्तुत किया है । इसे वें" युक्तिसंगत न मानते हुए कहते हैं कि यह तो मात्र प्रयोगभेद है । और प्रयोगभेदसे वस्तु ( हेतु ) भेद नहीं हो सकता । अथवा वह केवल उदाहरणभेद है— आत्मा और घट । यदि उदाहरण-भेदसे भेद हो तो 'तथा वैधर्म्यात्' यह सूत्र नहीं होना चाहिए, क्योंकि उदाहरणके भेदसे ही हेतुभेद अवगत हो जाता हैं और भेदक उदाहरणसूत्र 'तद्विपर्ययाद्वा विपरीतम् ' सूत्रकारने कहा ही है | अतः 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' यह वैधर्म्यप्रयुक्त हेतुका उदाहरण ठीक नहीं है । किन्तु 'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरं अप्राणादिमत्त्वप्रसंगादिति यह उदाहरण उचित है। इस प्रकार न्यायभाष्यकारकी मीमांसा सूत्रकारद्वारा प्रतिपादित हेतुद्वयकी पुष्टि में 'की गयी है । अतएव उद्योतकर अन्तिम निष्कर्ष निकालते हुए लिखते हैं कि परोक्त हेतुलक्षण सम्भव नहीं है, यही आर्ष (सूत्रकारोक्त ) हेतुलक्षण संगत है । न्यायभाष्यकारके" समय तक अनुमानावयवों की मान्यता दो रूपोंमें उपलब्ध होती है - ( १ ) पंचावयव और (२) दशावयव । वात्स्यायनने दशावयवमान्यताकी मीमांसा करके सूत्रकार प्रतिपादित पंचावयवमान्यता की संपुष्टि की है । पर उद्योतकरने' त्र्यवयवमान्यता की भी समीक्षा की है । यह मान्यता बौद्ध तार्किक दिङ्नागकी है, क्योंकि दिङ्नागने ही अधिक-से-अधिक तीन अवयव स्वीकार किये हैं । सांख्य विद्वान् माठरने" भी अनुमानके तीन अवयव प्रतिपादित किये हैं। यदि माठर दिङ्नागसे पूर्ववर्ती हैं तो न्यवयवमान्यता उनकी समझना चाहिए। इस प्रकार कितनी ही स्थापनाओं और समीक्षाओंके रूपमें उद्योतकर की उपलब्धियाँ हम उनके न्यायवार्तिक में पाते हैं । वाचस्पतिको' भी अनुमान के लिए महत्त्वपूर्ण देन है । व्याप्तिग्रहकी सामग्री में तर्कका प्रवेश उनकी ऐसी देन है जिसका अनुसरण उत्तरवर्ती सभी नैयायिकोंने किया है । उद्योतकर द्वारा प्रतिपादित 'लिंग १. 'त्रिलक्षणं च हेतुं बुवाणेन - अहेतुत्वमिति प्राप्तम् । तादृगविनाभावि धर्मोपदर्शनं हेतुरित्यपरे तादृशा बिना न भवतीत्यनेन द्वयं लभ्यते - 1 - न्यायवा० १ १ ३५, पृ० १३१ । २. चशब्दात् प्रत्यक्षागमाविरुद्धं चेत्येवं चतुर्लक्षणं पंचलक्षणमनुमानमिति । - वही, ११५, पृ० ४६ । ३. न्यायभा० १ १५, पृ० ४९ । ४. न्यायसू० १।१।३५ । ५. एतत्तु न समंजसमिति पश्यामः प्रयोगमात्रभेदात् । उदाहरणमात्रभेदाच्च । तस्मान्नेदं उदाहरणं न्याय्यमिति । उदाहरणं तु 'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरं अप्रमाणादिमत्व प्रसंगादिति । न्यायवा० १।१।३५, पृ० १२३ । ६. न्यायवा०, १।१।३५, पृ० १३४ । ८. न्यायवा० १ । १ । ३२, पृ० १०८ । १०. पक्षहेतुदृष्टान्ता इति त्र्यवयवम् - माठर वृ०, का० ५ । ११. न्यायवा० ता० टी० ११५, पृ० १६७, १७०, १७८, १६५ तथा १।१।३२, पृ० २६७ । २४७ - Jain Education International ७. न्यायभा० १।१।३२, पृ० ४७ । ९. न्यायप्रवेश पृ० १, २ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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