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परीत एवं निर्णयात्मक होता है । जैन दर्शनमें ऐसे तीन ज्ञान स्वीकार किये गये हैं। वे हैं अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान । इन तीन ज्ञानोंको मुख्य अथवा पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा गया है। पर जिन ज्ञानोंमें इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि परकी अपेक्षा रहती है वे ज्ञान अस्पष्ट होते हैं तथा जितने अंशोंमें वे व्यवहाराविसंवादी होते हैं उतने अंशोंमें वे असंदिग्ध, अविपरीत एवं निर्णयात्मक होते हैं, शेष अंशोंमें नहीं। ऐसे ज्ञान दो हैं :-१ मति और २ श्रुत । इन दोनों ज्ञानोंमें परकी अपेक्षा होनेसे उनकी परोक्ष संज्ञा है । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम जैसे परापेक्ष ज्ञानोंका समावेश इसी परोक्ष (मति और श्रुत) में किया गया है । इस तरह परोक्ष और प्रत्यक्षरूप इन मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानसे अर्थाधिगम होता है। स्मरण रहे कि इन्द्रियादिकी अपेक्षासे होने वाले चाक्षष आदि ज्ञान प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप लोकसंव्यवहारके कारण होते हैं और उन्हें लोकमें 'प्रत्यक्ष' कहा जाता है । अतः इन ज्ञानोंको लोकव्यवहार की दृष्टिसे जैन चिन्तकोंने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहा है । वैसे वे परोक्ष ही हैं । अर्थाधिगमका हेतु नय, और प्रमाणसे उसका कथंचित् पार्थक्य
अब प्रश्न है कि नय भी यदि अर्थाधिगमका साधन है तो वह ज्ञानरूप है या नहीं ? यदि ज्ञानरूप है तो वह प्रमाण है या अप्रमाण ? यदि प्रमाण है तो उसे प्रमाणसे पृथक् अर्थाधिगमका उपाय बतानेकी क्या आवश्यकता थी? अन्य दर्शनोंकी भाँति एकमात्र 'प्रमाण' को ही अधिगमोपाय बताना पर्याप्त था? यदि अप्रमाण है तो उससे यथार्थ अर्थाधिगम कैसे हो सकता है, अन्यथा संशयादि मिथ्याज्ञानोंसे भी यथार्थ अर्थाधिगम होना चाहिए? और यदि नय ज्ञानरूप नहीं है तो उसे सन्निकर्षादिकी तरह ज्ञापक स्वीकार नहीं किया जा सकता ?
ये कतिपय प्रश्न हैं, जो नयको अर्थाधिगमोपाय मानने वाले जैन दर्शनके सामने उठते हैं । जैन मनीषियोंने इन सभी प्रश्नोंपर बड़े ऊहापोहके साथ विचार किया है । - इसमें सन्देह नहीं कि नयको अर्थाधिगमोपायके रूपमें अन्य दर्शनोंमें स्वीकार नहीं किया गया है और जैन दर्शनमें ही उसे अंगीकार किया गया है। वास्तवमें 'नय' ज्ञानका एक अंश है और इसलिए वह न प्रमाण है और न अप्रमाण, किन्तु ज्ञानात्मक प्रमाणका एकदेश है । जब ज्ञाता या वक्ता ज्ञान द्वारा या वचनों द्वारा पदार्थमें अंशकल्पना करके उसे ग्रहण करता है तो उसका वह ज्ञान अथवा वचन नय कहा जाता है और जब पदार्थमें अंशकल्पना किये बिना वह उसे समग्र रूपमें ग्रहण करता है तब वह ज्ञान प्रमाण रूपसे व्यवहृत होता है। ऊपर हम देख चुके हैं कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पाँच ज्ञानोंको प्रमाण कहा गया है और उन्हें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष इन दो भेदों (वर्गों) में विभक्त किया गया है। जिन ज्ञानोंमें विषय अस्पष्ट एवं अपूर्ण झलकता है उन्हें परोक्ष तथा जिनमें विषय स्पष्ट एवं पूर्ण प्रतिबिम्बित होता है उन्हें प्रत्यक्ष निरूपित किया गया है। मति और श्रुत इन दो ज्ञानोंमें विषय अस्पष्ट एवं अपूर्ण झलकता है, इस
१-२. 'मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्', 'तत्प्रमाणे', 'आद्ये परोक्षम्', 'प्रत्यक्षमन्यत्' .
-तत्त्वार्थसू० १-९, १०, ११, १२ । ३. 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्'
-तत्त्वार्थसूत्र १-१३ । ४. 'प्रमाणकदेशाश्च नयाः.......'-पूज्यपाद, सर्वार्थ० १-३२ ।
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