________________
___ 'मोक्षमार्गमें उपयोगी ज्ञानका ही विचार करना चाहिए। यदि कोई जगत्के कीड़े-मकोड़ोंकी संख्या को जानता है तो उससे हमें क्या लाभ ? अतः जो हेय और उपादेय तथा उनके उपायोंको जानता है वही हमारे लिए प्रमाण आप्त है, सबका जानने वाला नहीं।'
यहाँ उल्लेखनीय है कि कुमारिलने जहाँ धर्मज्ञका निषेध करके सर्वज्ञके सद्भावको इष्ट प्रकट किया है वहाँ धर्मकीर्तिने ठीक उसके विपरीत धर्मज्ञको सिद्ध कर सर्वज्ञका निषेध मान्य किया है। शान्तरक्षित और उनके शिष्य कमलशील बुद्ध में धर्मज्ञताके साथ ही सर्वज्ञताकी भी सिद्धि करते हैं । पर वे भी धर्मज्ञताको मुख्य और सर्वज्ञताको प्रासङ्गिक बतलाते हैं। इस तरह हम बौद्ध दर्शनमें सर्वज्ञताकी सिद्धि देख कर भी, वस्तुतः उसका विशेष बल हेयोपादेयतत्त्वज्ञतापर ही है, ऐसा निष्कर्ष निकाल सकते हैं ।
न्याय-वैशेषिक दर्शन में सर्वज्ञता
न्याय-वैशेषिक ईश्वरमें सर्वज्ञत्व माननेके अतिरिक्त दूसरे योगी आत्माओंमें भी उसे स्वीकार करते है । परन्तु उनकी वह सर्वज्ञता अपवर्ग-प्राप्तिके बाद नष्ट हो जाती है, क्योंकि वह योग तथा आत्ममन:संयोग-जन्य गुण अथवा अणिमा आदि ऋद्धियोंकी तरह एक विभूति मात्र है। मुक्तावस्थामें न आत्ममन:संयोग रहता है और न योग । अतः ज्ञानादि गुणोंका उच्छेद हो जानेसे वहाँ सर्वज्ञता भी समाप्त हो जाती है। हाँ, वे ईश्वरकी सर्वज्ञता अवश्य अनादि-अनन्त मानते हैं। सांख्य-योग दर्शन में सर्वज्ञता
निरीश्वरवादी सांख्य प्रकृतिमें और ईश्वरवादी योग ईश्वरमें सर्वज्ञता स्वीकार करते हैं । सांख्य दर्शनका मन्तव्य है कि ज्ञान बुद्धितत्त्वका परिणाम है और बुद्धितत्त्व महत्तत्त्व और महत्तत्त्व प्रकृतिका परिणाम है। अतः सर्वज्ञता प्रकृतितत्त्वमें निहित है और वह अपवर्ग हो जानेपर समाप्त हो जाती । योगदर्शनका दृष्टिकोण है कि पुरुषविशेषरूप ईश्वरमें नित्य सर्वज्ञता है और योगियोंकी सर्वज्ञता, जो सर्व विषयक 'तारक' विवेकज्ञान रूप है, अपवर्ग के बाद नष्ट हो जाती है। अपवर्ग अवस्थामें पुरुष चैतन्यमात्रमें, जो ज्ञानसे भिन्न है, अवस्थित रहता है। यह भी आवश्यक नहीं कि हर योगीको वह सर्वज्ञता प्राप्त हो । तात्पर्य यह कि योगदर्शनमें सर्वज्ञताकी सम्भावना तो की गई है, पर वह योगज विभूतिजन्य होनेसे अनादि-अनन्त नहीं है, केवल सादि-सान्त है ।
१. स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुज्ञोऽस्तीति गम्यते ।
साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वज्ञोऽपि प्रतीयते ।।-तत्त्व. सं. का. ३३० । २. 'मुख्यं हि तावत् स्वर्गमोक्षसम्प्रापकहेतुज्ञत्वसाधनं भगबतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः अशेषार्थपरिज्ञातृत्व
साधनमस्य तत् प्रासङ्गिकम् ।'-तत्त्व. सं. प. ८६३ । ३. 'अस्मद्विशिष्टानां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाशदिक्कलालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषसमवाये चावितथं स्वरूपदर्शनमुत्पद्यते, वियुक्तानां पुनः............
-प्रशस्तपादभाष्य, पृ० १८७ । ४. 'क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः'---योगसूत्र । ५. 'तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्'-योगसूत्र १-१-३ ।
- २२० -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org