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जैन दर्शन में सल्लेखना : एक अनुशीलन
पृष्ठभूमि
जन्म के साथ मृत्युका और मृत्युके साथ जन्मका अनादि प्रवाह सम्बन्ध है । जो उत्पन्न होता है। उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म भी होता है । इस तरह जन्म और मरणका प्रवाह तबतक प्रवाहित रहता है जबतक जीवकी मुक्ति नहीं होती । इस प्रवाह में जीवोंको नाना क्लेशों और दुःखोंको भोगना पड़ता है । परन्तु राग-द्वेष और इन्द्रियविषयोंमें आसक्त व्यक्ति इस ध्रुव सत्यको जानते हुए भी उससे मुक्ति पानेकी ओर लक्ष्य नहीं देते । प्रत्युत जब कोई पैदा होता है तो उसका वे 'जन्मोत्सव' मनाते तथा हर्ष व्यक्त करते हैं । और जब कोई मरता है तो उसकी मृत्युपर आँसू बहाते एवं शोक प्रकट करते हैं ।
पर संसार - विरक्त मुमुक्षु सन्तोंकी वृत्ति इससे भिन्न होती है । वे अपनी मृत्युको अच्छा मानते हैं और यह सोचते हैं कि जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी पिजरेसे आत्माको छुटकारा मिल रहा है । अतएव जैन मनीषियों ने उनकी मृत्युको 'मृत्यु महोत्सव' के रूपमें वर्णन किया है । इस वैलक्षण्यको समझना कुछ कठिन नहीं है । यथार्थ में साधारण लोग संसार (विषय- कषायके पोषक चेतनाचेतन पदार्थों) को आत्मीय समझते हैं । अतः उनके छोड़ने में उन्हें दुःखका अनुभव होता है और उनके मिलने में हर्ष होता है । परन्तु शरीर और आत्माके भेदको समझनेवाले ज्ञानी वीतरागी सन्त न केवल विषय कषायकी पोषक बाह्य वस्तुओंको ही, अपितु अपने शरीर को भी पर- अनात्मीय मानते । अतः शरीरको छोड़ने में उन्हें दुःख न होकर प्रमोद होता है | वे अपना वास्तविक निवास इस द्वन्द्व प्रधान दुनियाको नहीं मानते, किन्तु मुक्ति को समझते हैं और सदर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, त्याग, संयम आदि आत्मीय गुणोंको अपना यथार्थ परिवार मानते हैं । फलतः सन्तजन यदि अपने पौद्गलिक शरीर के त्यागपर 'मृत्यु- महोत्सव' मनायें तो कोई आश्चर्य नहीं है । वे अपने रुग्ण, अशक्त, जर्जरित, कुछ क्षणों में जानेवाले और विपद्ग्रस्त जीर्ण-शीर्ण शरीरको छोड़ने तथा नये शरीरको ग्रहण करनेमें उसी तरह उत्सुक एवं प्रमुदित होते हैं जिस तरह कोई व्यक्ति अपने पुराने, मलिन, जीर्ण और काम न दे सकनेवाले वस्त्रको छोड़ने तथा नवीन वस्त्रके परिधानमें अधिक प्रसन्न होता है ।'
१. ' जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रु' वं जन्म मृतस्य च ।' – गीता, २-२७ ।
२. ३. 'संसारासक्तचित्तानां मृत्युर्भीत्यं भवेन्नृणाम् ।
मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञान-वैराग्यवासिनाम् ॥' - मृत्युमहोत्सव, श्लो० १७ ।
४. 'ज्ञानिन् ! भयं भवेत्कस्मात्प्राप्ते मृत्यु- महोत्सवे ।
स्वरूपस्थः पुरं याति देहाद्देहान्तर स्थितिः ॥ - मृत्यु महोत्सव, श्लो० १० । ५. जीर्णं देहादिकं सर्वं नूतनं जायते यतः ।
स मृत्युः किं न मोदाय सतां सातोत्थितिर्यथा ॥ - मृत्युमहोत्सव, श्लो० १५ । गीता में भी इसी भावको प्रदर्शित किया गया है । यथा
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ गीता, २- २२ ।
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