________________
गाय हवनका विधान, अन्य यज्ञोंमें श्वेत बकरेकी बलिका निर्देश जैसे सैकड़ों हिंसा प्रतिपादक अनुष्ठानादेश वेदविहित हैं - 'एक हायन्या अरुणया गवा सोमं क्रीणाति' 'श्वेतमजमालभेत' आदि ।
२. वैदिक संस्कृति मीमांसक विचार और अनुष्ठान प्रधान है । अतएव आरम्भ में इसमें ईश्वरका कोई स्थान न था । क्रिया ही अनुष्ठेय एवं उपास्य थी। किसी पुरुषविशेषको उपास्य या ईश्वर मानना इस संस्कृति के लिए इष्ट नहीं रहा, क्योंकि उसे माननेपर वेदकी अपौरुषेयतापर आंच आती और खतरेमें, पड़ती है । इसीलिए वैदिक मन्त्रोंमें केवल इन्द्र, वरुण जैसे देवताओंका ही आह्वान हैं। राम, कृष्ण, शिव विष्णु जैसे पुरुषावतारी ईश्वरकी उपासना इस संस्कृति में आरम्भ में नहीं रही। वह तो उत्तर काल में आयी और उनके लिए मन्दिर बने तथा तीर्थोंका स्थापन हुआ ।
३. जहाँ तक ऐतिहासिकों और समीक्षकोंका विचार है यह संस्कृति क्रियाप्रधान है, अध्यात्म- प्रधान नहीं । वेदोंमें आत्माका विवेचन अनुपलब्ध हैं । वह उपनिषदों के माध्यम से इस संस्कृति में पीछे आया है । माण्डूक्य उपनिषद् में कहा है कि विद्या दो प्रकारकी है- १. परा और २. अपरा । परा विद्या आत्मविद्या है और अपरा विद्या कर्म-काण्ड है । छान्दोग्योपनिषद् में आत्म-विद्याकी प्राप्ति क्षत्रियोंसे और क्रियाकाण्डका ज्ञान ब्राह्मणोंसे बतलाया गया है । इससे प्रतीत होता है कि उस सुदूर कालमें आत्म-विद्या इस संस्कृति में नहीं थी ।
४. वेदोंमें यज्ञ करनेसे स्वर्गप्राप्तिका निर्देश है, मोक्ष या निःश्रेयस की कोई चर्चा नहीं । उसका प्रतिपादन इस संस्कृति में पीछे समाविष्ट हुआ है ।
५. वेदोंमें तप, त्याग, ध्यान, संयम और शम जैसे आध्यात्मिक साधनोंको कोई स्थान प्राप्त नहीं है । तत्त्वज्ञानका भी प्रतिपादन नहीं है । उनमें केवल 'यजेत् स्वर्गकाम:' जैसे निर्देशों द्वारा स्वर्गकामीके लिए यज्ञका ही विधान है ।
अवैदिक (श्रमण) संस्कृति
इसके विपरीत अवैदिक ( श्रमण ) संस्कृति में, जो पुरुष-विशेष के अनुभवपर आधृत है और जो श्रमण-संस्कृति या तीर्थकर संस्कृति के नाम से जानी-पहचानी जाती हैं, वे सभी (ईश्वर, निःश्रेयस, तप, ध्यान, संयम, शम आदि) बातें पायी जाती हैं जो वैदिक संस्कृति में आरम्भ में नहीं थीं । यद्यपि जैन और बौद्ध दोनोंकी संस्कृतिको अवैदिक अर्थात् श्रमण संस्कृति कहा जाता है । पर यथार्थ में आर्हत संस्कृति ही अवैदिक ( श्रमण ) संस्कृति है, क्योंकि उसे समण - सम + उपदेशक अर्हत् के अनुभव - केवलज्ञानमूलक माना गया है । दूसरे, रे, बुद्ध भी आरम्भ में तीर्थंकर पार्श्वनाथकी परम्परामें हुए निर्ग्रन्थ मुनि पिहितास्रवसे दीक्षित हु थे और वर्षों तक तदनुसार दया, समाधि, केशलुंचन, अनशनादि तप आदि प्रवृत्तियोंका आचरण करते रहे थे | बादको निर्ग्रन्थ-तप की क्लिष्टताको सहन न कर सकने के कारण उन्होंने निर्ग्रन्थ-मार्गको छोड़ दिया
।
और मध्यम मार्ग अपना लिया। फिर भी दया, समाधि आदि कुशल कर्मोंको नहीं त्यागा और बोधि प्राप्त हो जाने के बाद उन्होंने भी निर्ग्रन्थ संस्कृतिके दया, समाधि आदिका उपदेश दिया तथा वैदिक क्रियाकाण्डको बिना आत्मज्ञान ( तत्त्वज्ञान) के थोथा बतलाया । इसीलिए उनकी विचारधारा और आचरण वैदिक संस्कृति के अनुकूल न होने और केवलज्ञानमूलक श्रमण संस्कृति के कुछ अनुकूल होनेसे उसे श्रमण-संस्कृतिमें समाहित कर लिया गया है ।
Jain Education International
- १९७ -
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org