________________
साथ सहन करता है । निन्दा करने वालोंपर रुष्ट नहीं होता और स्तुति करने वालोंपर प्रसन्न नहीं होता । वह सबपर साम्यवृत्ति रखता है । अपनेको पूर्ण सावधान रखता है । तामसी और राजसी वृत्तियोंसे अपने आपको बचाये रखता है। मार्ग चलेगा तो चार कदम जमीन देखकर चलेगा; जीव-जन्तुओंको बचाता हुआ चलेगा, हित-मित वचन बोलेगा ज्यादा बकवाद नहीं करेगा। गरज यह कि जैन साधु अपनी तमाम प्रवृत्ति सावधानी से करता है । यह सब अहिंसा के लिए, अहिंसातत्त्वकी उपासना के लिए 'परमब्रह्मको प्राप्त करने के लिए 'अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं' इस समन्तभद्रोक्त तत्त्वको हासिल करने के लिए । इस तरह जैन साधु अपने जीवनको पूर्ण अहिंसामय बनाता हुआ, अहिंसाकी साधना करता हुआ, जीवनको अहिंसाजन्य अनुपम शांति प्रदान करता हुआ, विकारी पुद्गलसे अपना नाता तोड़ता हुआ, कर्म-बन्धनको काटता हुआ, अहिंसा में ही — परमब्रह्ममें ही - शाश्वतानन्दमें ही -- निमग्न हो जाता है--लीन हो जाता है--सदा के लिए--अनन्तकालके लिए । फिर उसे संसारका चक्कर नहीं लगाना पड़ता । वह अजर, अमर, अविनाशी हो जाता है । सिद्ध एवं कृतकृत्य बन जाता है यह सब अहिंसा के द्वारा ही । वीर-शासनकी जड़ -- बुनियाद-आधार और विकास अहिंसा ही है ।
वर्तमानमें जैन समाज इस अहिंसा-तत्त्व को कुछ भूल-सा गया है। इसीलिये जैनेतर लोग उसके बाह्याचारको देखकर 'जैनी अहिंसा', 'वीर अहिंसा' पर कायरताका कलंक मढ़ते हुए पाये जाते हैं। क्या ही अच्छा हो, जैनी लोग अपने व्यवहारसे अहिंसाको व्यावहारिक धर्म बनाये रखनेसे सच्चे अर्थोम 'जैनी' बनें, आत्मबल पुष्ट करें, साहसी और वीर बनें जितेन्द्रिय होवें । उनकी अहिंसा केवल चिवटी खटमल, जूँ आदिकी रक्षा तक ही सीमित न हो, जिससे दूसरे लोग हमारे दम्भपूर्ण व्यवहार - निरा अहिंसा के व्यवहारको देखकर वीर प्रभुकी महती देन - अहिंसापर कलंक न मढ़ सकें ।
२ साम्यवाद
यह अहिंसाका ही अवान्तर सिद्धान्त है, लेकिन इस सिद्धान्तकी हमारे जीवनमे अहिंसाकी ही भांति अपनाये जानेकी आवश्यकता होनेसे 'अहिंसावाद' के समकक्ष इसकी गणना करना उपयुक्त है, क्योंकि भगवान् वोरके शासन में सबके साथ साम्य भाव -- सद्भावनाके साथ व्यवहार करनेका उपदेश है, अनुचित राग और द्वेषका त्यागना, दूसरों के साथ अन्याय तथा अत्याचारका बर्ताव नहीं करना, न्यायपूर्वक ही अपनी आजीविका सम्पादित करना, दूसरोंके अधिकारोंको हड़प नहीं करना, दूसरोंकी आजीविका पर नुकसान नहीं पहुँचाना, उनको अपने जैसा स्वतन्त्र और सुखी रहनेका अधिकारी समझकर उनके साथ 'वसुधैव कुटुम्बकम्' —यथायोग्य भाईचारेका व्यवहार करना, उनके उत्कर्षमें सहायक होना, उनका कभी अपकर्ष नहीं सोचना, जीवनोपयोगी सामग्रीको स्वयं उचित और आवश्यक रखना और दूसरोंको रखने देना, संग्रह, लोलुपता, चूसनेकी वृत्तिका परित्याग करना ही 'साम्यवाद' का लक्ष्य है-साम्यवादकी शिक्षाका मुख्य उद्देश्य है । यदि आज विश्व में वीरप्रभुकी यह साम्यवादकी शिक्षा प्रसृत हो जावे तो सारा विश्व सुखी और शांतिपूर्ण हो जाय । ३ स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद
इसको जन्म देनेका महान् श्रेय वीरशासनको ही है । प्रत्येक वस्तुके खरे और खोटेकी जाँच 'अनेकान्त दृष्टि' - ' स्याद्वाद' की कसौटीपर ही की जा सकती है। चूँकि वस्तु स्वयं अनेकान्तात्मक है उसको वैसा मानने में ही वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था होती है । स्याद्वाद के प्रभावसे वस्तुके स्वरूप निर्णय में पूरा-पूरा प्रकाश प्राप्त होता है और सकल दुर्नयों एवं मिथ्या एकान्तोंका अन्त हो जाता है तथा समन्वयका एक महानतम प्रशस्त मार्ग मिल जाता है । कुछ जैनेतर विचारकोंने स्याद्वादको ठीक तरह से नहीं समझा । इसीसे उन्होंने स्याद्वाद के
| १५८ -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org