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ईश्वर - सर्वज्ञ परमात्मा बन सकता है। जैसे एक छह वर्षका विद्यार्थी 'अ आ इ' सीखता हुआ एक-एक दर्जेको पास करके एम० ए० और डॉक्टर बन जाता है और छह वर्ष के अल्प ज्ञानको सहस्रों गुना विकसित कर लेता है, उसी प्रकार साधारण आत्मा भी दोषों और आवरणोंको दूर करता हुआ महात्मा तथा परमात्मा बन जाता है। कुछ दोषों और आवरणोंको दूर करनेसे महात्मा और सर्व दोषों तथा आवरणों को दूर करनेसे परमात्मा कहलाता है । अतएव जैनधर्म में गुणोंकी अपेक्षा पूर्ण विकसित आत्मा ही परमात्मा है, सर्वज्ञ एवं ईश्वर है उससे जुदा एक रूप कोई ईश्वर नहीं है । यथार्थतः गुणोंकी अपेक्षा जैनधर्म में ईश्वर और जीव में कोई भेद नहीं है । यदि भेद है तो वह यही कि जीव कर्म-बन्धन युक्त है और ईश्वर कर्म - बन्धन मुक्त है । पर कर्म-बन्धनके दूर हो जानेपर वह भी ईश्वर हो जाता है । इस तरह जैनधर्म में अनन्त ईश्वर हैं । हम व आप भी कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जानेपर ईश्वर (सर्वज्ञ) बन सकते हैं । पूजा, उपासनादि जैनधर्म में मुक्त न होने तक ही बतलाई है । उसके बाद वह और ईश्वर सब स्वतन्त्र व समान हैं और अनन्त गुणोंके भण्डार हैं । यही सर्वज्ञवाद अथवा परमात्मवाद है जो सबसे निराला है । त्रिपिटकों ( मज्झिमनिकाय अनु. पृ. ५७ आदि) में महावीर ( निग्गंठनातपुत्त) को बुद्ध और उनके आनन्द आदि शिष्योंने 'सर्वज्ञ सर्वदर्शी निरन्तर समस्त ज्ञान दर्शनवाला' कहकर अनेक जगह उल्लेखित किया है ।
२ रत्नत्रय धर्म - जीव परमात्मा कैसे बन सकता है, इस बातको भी जैनधर्म में बतलाया गया है । जो जीव सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चरित्ररूप रत्नत्रय धर्मको धारण करता है वह संसार के दुखोंसे मुक्त परमात्मा हो जाता है ।
(क) सम्यक्दर्शन - मूढता और अभिमान रहित होकर यथार्थ ( निर्दोष) देव (परमात्मा ), यथार्थ वचन और यथार्थ महात्माको मानना और उनपर ही अपना विश्वास करना ।
(ख) सम्यक्ज्ञान-न कम, न ज्यादा, यथार्थ, सन्देह और विपर्यय रहित तत्त्वका ज्ञान करना ।
(ग) सम्यक्चरित्र - हिंसा न करना, झूठ न बोलना, पर-वस्तुको बिना दिये ग्रहण न करना, ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना अपरिग्रही होना । गृहस्थ इनका पालन एकदेश और निर्ग्रन्थ साधु पूर्णत: करते हैं ।
३ सप्त तत्त्व-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व ( वस्तुभूत पदार्थ) हैं । जो चेतना ( जानने-देखनेके) गुणसे युक्त है वह जीवतत्त्व है । जो चेतनायुक्त नहीं है वह अजीवतत्त्व है । इसके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच भेद हैं। जिन कारणोंसे जीव और पुद्गलका संबंध होता है वे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग आस्रवतत्त्व हैं। दूध पानीकी जीव और पुद्गलका जो गाढ़ सम्बन्ध है वह बन्धतत्त्व है । अनागत बन्धका न होना संवरतत्त्व है और संचित पूर्वबन्धका छूट जाना निर्जरा है और सम्पूर्ण कर्मबन्धनसे रहित हो जाना मोक्ष है । मुमुक्षु और संसारी दोनोंके लिए इन तत्त्वोंका ज्ञान करना आवश्यक है ।
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४ कर्म - जो जीवको पराधीन बनाता है-उसकी स्वतंत्रता में बाधक है वह कर्म है । इस कर्म - की वजहसे ही जीवात्मा नाना योनियों में भ्रमण करता है । इसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ भेद हैं। इनके भी उत्तर भेद अनेक हैं ।
५ अनेकान्त और स्याद्वाद - जैन धर्मको ठीक तरह समझने-समझाने और मीमांसा करने कराने के लिए महावीरने जैनधर्मके साथ ही जैन दर्शनका भी प्ररूपण किया ।
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