________________
तुलनात्मक संक्षिप्त अध्ययन) नामको पुस्तकमें लिखते हैं कि 'हमने दुनियाके सर्व धार्मिक विचारोंको सच्चे भावसे पढ़कर यह समझा है कि इन सबका मूलकारण विचारवान् जैनियोंका यतिधर्म है। जैन साधु सब भूमियोंमें सुदूर पूर्वकालसे ही अपनेको संसारसे भिन्न करके एकान्त वन व पर्वतकी गुफाओंमें पवित्र ध्यानमें मग्न रहते थे।'
डाक्टर टाम्स कहते हैं कि 'जैन साधुओंका नग्न रहना इस मतकी अति प्राचीनता बताता है।'
सम्राट चन्द्रगुप्तके समयमें नग्न गुरुओंकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। मुद्राराक्षसके कर्ता प्रसिद्ध विद्वान् कवि कालिदासने लिखा है कि इसीलिये जासूसोंको नग्न साधुके वेषमें घुमाया जाता था। नग्न साधुओंके सिवा दूसरोंकी पहँच राजघरानोंमें उनके अन्तःपुर तक नहीं हो पाती थी। इससे यह विदित हो जाता है कि जैन निर्ग्रन्थ साधु कितने निर्विकार, निःस्पृही, विश्वासपात्र और उच्च चारित्रवान् होते हैं और उनकी यह नग्नमुद्रा बच्चेकी तरह कितनी विकारहीन एवं प्राकृतिक होती है । साधुदीक्षाका महत्व
___इस तरह आत्म-शुद्धिके लिये दिगम्बर साधु होने अथवा उसकी दीक्षा ग्रहण करनेका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है । जब मुमुक्षु श्रावकको संसारसे निर्वेद एवं वैराग्य हो जाता है तो वह उक्त साधुकी दीक्षा लेकर
य जीवन बिताता हआ आत्म-कल्याणकी ओर उन्मख होता है । जब उसे आत्मसाधना करते-करते आत्मदृष्टि (सम्यग्दर्शन), आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और आत्मचरण (सम्यक्चारित्र) ये तीन महत्त्वपूर्ण आत्मगुण प्राप्त हो जाते हैं और पूर्ण वीतराग सर्वज्ञ बन जाता है तो वह उन गुणोंको प्राप्त करनेका दूसरोंको भी उपदेश करता है । अतएव साधु-दीक्षा एवं तपका ग्रहण स्वपर-कल्याणका कारण होनेसे उसका जैन धर्म में विशिष्ट स्थान है। दूसरोंके लिये तो वह एक आनन्दप्रद उत्सव है ही, किन्तु साधुके लिये भी वह अपूर्व आनन्दकारक उत्सव है। और इसीसे पण्डितप्रवर दौलतरामजीने निम्न पद्यमें भव-भोगविरागी मुनियोंके लिये 'बड़भागी' कहा है
'मुनि सकलव्रती बड़भागी, भव-भोगनतें वैरागी।
वैराग्य उपावन माई, चिन्तौ अनुप्रेक्षा भाई ॥ जैन शास्त्रोंमें बतलाया गया है कि तीर्थकर जब संसारसे विरक्त होते हैं और मुनिदीक्षा लेनेके लिये प्रवृत्त होते हैं तो एक भवावतारी, सदा ब्रह्मचारी और सदैव आत्मज्ञानी लौकान्तिक देव उनके इस दीक्षाउत्सवमें आते हैं और उनके इस कार्यको प्रशंसा करते हैं । पर वे उनके जन्मादि उत्सवोंपर नहीं आते । इससे साधु-दीक्षाका महत्त्व विशेष ज्ञात होता है और उसका कारण यही है कि वह आत्माके स्वरूपलाभमें तथा परकल्याणमें मुख्य कारण है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org