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________________ 'जिसके शुभ राग है, अनुकम्पा (दया) रूप परिणाम है और चित्तमें अकलुषता है उसके पुण्यका आस्रव (आयात) होता है ।' यहाँ दृष्टव्य है कि कुन्दकुन्दने अनुकम्पारूप परिणामको स्पष्टतया पुण्यकर्मके आगमनका कारण बतलाया है । इसका अर्थ है कि जैन धर्म में अनुकम्पा जीवका एक शुभ भाव मात्र है, जिसमें रागांश रहने के कारण वह पौद्गलिक पुण्यरूप कर्मका जनक है । और जो कर्मका जनक है वह धर्म नहीं हो सकता । अतएव करुणा पुण्यकर्मका कारण होनेसे धर्म नहीं है । अहिंसा, जो आत्मामें भीतरसे विकसित होती है, फूटती है, अनाकुला, स्थायिनी, स्वाभाविकी और स्व-परसुखदायिनी है - दुःख तो उससे किसीको होता नहीं, धर्म है । वस्तुका निज स्वभाव ही धर्म होता है और अहिंसा आत्माका निज स्वभाव है । वह अनैमित्तिक (अनौपाधिक) है और करुणा नैमित्तिक ( औपाधिक ) है । दुःखी व्यक्ति जब सामने उपस्थित होता है तभी कारुणिक के चित्त में करुणा जन्म लेती है । अहिंसाका स्रोत, ज्यों-ज्यों मोह और आवरण हटते जाते हैं, खुलता जाता है, सदा बहता रहता और बढ़ता जाता है। दुःखी व्यक्ति अहिंसक के सामने उपस्थित हो, चाहे न हो । सम्भवतः करुणा और अहिंसा के इसी सूक्ष्म अन्तर एवं रहस्यको लक्ष्य करके योगसूत्रकार महर्षि पतञ्जलि ने भी अहिंसाको सर्वाधिक महत्त्व दिया और कहा कि 'अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधो वैरत्यागः' (यो० सू० २-३५ ) अहिंसाकी आत्मा में प्रतिष्ठा होनेपर समस्त प्रकारका बैर ( रंजिस ) छूट जाता है और अहिंसकके समक्ष विश्वके समस्त प्राणी आत्मवत् हो जाते हैं । जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानन्दने करुणाको मोहविशेष ( इच्छाविशेष) रूप बतलाते हुए लिखा है : :- 'तेषां मोहविशेषात्मिकायाः करुणायाः सम्भवाभावात् ' - ( अष्टस० पृ० २८३ ) - करुणा मोहविशेष ( इच्छा) रूप है । वह वीतरागों (केवलियों) में सम्भव नहीं है । जब विद्यानन्दसे प्रश्न किया गया कि बिना करुणाके वीतरागोंकी दूसरोंके दुःखकी निवृत्ति के लिए किये जानेवाले हितोपदेशमें प्रवृत्ति कैसे होगी ? इसका वे सयुक्तिक समाधान करते हुए कहते हैं - 'स्वभावतोपि स्वपरदुःखनिवर्त्तननिबन्धनत्वोपपत्तेः प्रदीपवत्' ( वही पृ० २८३ ) - जिस प्रकार दीपक बिना करुणाके दुःखहेतु अन्धकारकी निवृत्ति स्वभावतः करता है उसी प्रकार वीतराग भी बिना करुणाके स्वपरदुःखकी निवृत्ति स्वभावतः करते हैं । विश्रुत जैन मनीषी अकलदेव भी उक्त प्रश्नका उत्तर देते हुए कहते हैं 'न व प्रदीपः कृपालुतयात्मानं परं वा तमसो निवर्त्तयति । कल्पयित्वापि कृपालुतां तत्करणस्वभावमृग्यम् । एवं हि परम्परापरिश्रमं परिहरेत् । - अष्टश० अष्टस० पृ० २८३ । सामर्थ्यं क्या नहीं जानते कि दीपक कृपालु होनेसे स्वपरके अन्धकारको दूर नहीं करता, अपितु उसका उक्त प्रकारका स्वभाव होने से वह उभयका अन्धकार मिटाता है। वीतराग भी कृपालुताके कारण स्वपरके दुःखकी निवृत्ति नहीं करते, किन्तु उनका उस प्रकारका स्वभाव होनेसे स्वपरके दुःखको दूर करनेके लिए प्रवृत्त होते हैं । यदि करुणासे दुःखनिवृत्तिपर बल दिया जाय तो वीतरागोंके करुणा माननेपर भी उनका स्वपरदुःखके निवर्तनका स्वभाव अवश्य मानना पड़ेगा । अतः क्यों नहीं, वीतरागोंके करुणाके विना भी उक्त स्वभाव ही माना जाय । विद्यानन्द यौक्तिक समाधानके अलावा आगमिक समाधान भी करते हैं ततो निःशेषान्तरायक्षयादभय दानस्वरूपमेवात्मनः 'प्रक्षीणावरणस्य परमा दया । सैव मोहाभावाद्रागद्वेषयोरप्रणिधानादुपेक्षा । तीर्थकरत्वनामोदयात्तु हितोपदेशप्रवर्त्तनात् परदुःखनिराकरणसिद्धि: । ' - अष्टस० पृ० २८३ । Jain Education International - १४१ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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