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इस तरह हम सहज रूपमें जान सकते हैं कि पुण्य और पापके विषयमें शास्त्रका क्या दृष्टिकोण है ? अर्थात् निश्चयनयसे पाप भी हेय है और पुण्य भी हेय है, क्योंकि वे दोनों पुद्गलके परिणाम हैं । पण्डितप्रवर दौलतरामजीके शब्दोंमें
_ 'पुण्य-पापफल माहिं हरख-बिलखो मत भाई,
यह पुद्गल-परजाय उपज विनर्स किर थाई ।' तथा व्यवहारनयसे पुण्य उपादेय है, क्योंकि व्रतादिका ग्रहण प्रथमावस्थामें आवश्यक है और उनसे पुण्यका आस्रव होता है। पाप तो सर्वथा वर्जनीय ही है।
CADUN
१. छहढाला।
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