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आप्त-परीक्षा : एक अध्ययन प्रो० उदयचन्द्र जैन बौद्ध-सर्वदर्शनाचार्य, वाराणसी
श्री डाँ० दरबारीलालजी कोठिया जैन न्याय और जैन दर्शनके उच्चकोटिके विद्वान हैं। आपने सन १९४० में न्यायाचार्य परीक्षा उत्तीर्ण करके अपनी न्याय-विषयक प्रतिभाको उजागर तो किया ही है, साथ ही जैन समाजको भी गौरवान्वित किया है। इसी प्रकार काशी हिन्दू विश्वविद्यालयसे सन् १९५५ में जैन दर्शनमें शास्त्राचार्य-परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण करके जैनदर्शनके क्षेत्रमें ख्याति अर्जित की है।
___ आप प्रारम्भसे ही प्रतिभाके धनी और कुशल अन्वेषक रहे हैं। अन्वेषण और शोध कार्योंके प्रति गहन रुचि होने के कारण आपने जैन साहित्य और इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान पं० जुगल किशोरजी मुख्तारके सान्निध्यमें वीर-सेवा-मन्दिर सरसावामें रहकर अनेक खोजपूर्ण लेख लिखे तथा जैनन्याय और जैनदर्शनके अनेक उच्च कोटिके ग्रन्थोंका सफल सम्पादन एवं अनुवाद किया। आपने स्वसम्पादित ग्रन्थोंकी जो प्रस्तावनाएँ लिखी हैं वे अनेक विशेषताओंके कारण विशेष महत्त्व रखती हैं ।
। प्रस्तुत निबन्धका विषय कोठियाजीके द्वारा सम्पादित 'आप्त-परीक्षा' का अध्ययन है। आचार्य विद्यानन्दद्वारा विरचित 'आप्त-परीक्षा' जैनदर्शनका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें अनेक दष्टिकोणोंसे आप्तकी परीक्षा करके यथार्थ आप्तका स्वरूप प्रतिष्ठापित किया गया है। संस्कृत-भाषामें रचित मल आप्त-परीक्षामें १२४ कारिकाएँ हैं और स्वयं आचार्य विद्यानन्दने इन कारिकाओंके गूढार्थको स्वोपज्ञ विस्तृत संस्कृतटीका द्वारा स्पष्ट किया है। समीक्ष्य ग्रन्थमें क्रमशः मूल कारिकाएँ, उसकी संस्कृत-टीका और हिन्दी रूपान्तर दिया गया है । इससे पाठकको मूलग्रन्थ एवं उसकी टीकाको समझनेमें सरलता हो जाती है। मुद्रित ग्रन्थकी साइज डिमाई है और इसके २६६ पृष्ठोंमें मूल संस्कृतके साथ हिन्दी अनुवाद समाप्त हुआ है।
ग्रन्थ के प्रारम्भमें पं० जगल किशोरजी मुख्तारका प्रकाशकीय वक्तव्य है। इस वक्तव्यमें मुख्तार सा० ने लिखा है कि यह ग्रन्थ उनके लिए कितना प्रिय था। वे आप्त-परीक्षा और आप्त-मीमांसा दोनोंका नित्य पाठ किया करते थे। मुख्तार सा० के हृदयमें बराबर यह भावना बनी रहती थी कि यदि आप्त-परीक्षाका अच्छा हिन्दी अनुवाद हो जाय तो इससे लोकका बड़ा उपकार हो । तब तक कोठियाजी द्वारा 'न्यायदीपिका' का सुन्दर और सफल अनुवादादि कार्य सम्पन्न हो चुका था और इससे प्रभावित होकर मुख्तार साने आप्तपरीक्षाके अनुवादके लिए कोठियाजीको प्रेरित किया। तदनन्तर कोठियाजीने दो वर्ष में ही आप्तपरीक्षाका हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावना आदि समस्त कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लिया। इसके बाद मुख्तार सा० ने वीर-सेवा-मन्दिरसे दिसम्बर १९४९ में इस ग्रन्थको प्रकाशित करके परम सन्तोषका अनुभव किया।
इस ग्रन्थके सम्पादकीयसे ज्ञात होता है कि कोठियाजीने प्रकृत ग्रन्थका संशोधन तथा सम्पादन दो मुद्रित तथा तीन अमुद्रित प्रतियोंके आधारसे किया है। मूल ग्रन्थको प्राप्त प्रतियोंके आधारसे शुद्ध किया गया है और अशुद्ध पाठों अथवा पाठान्तरोंको फुटनोटोंमें दे दिया गया है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थके सन्दर्भके अनुसार कुछ आवश्यक पाठ भी निक्षिप्त किये गए हैं । ऐसे पाठ मुद्रित और अमुद्रित दोनों ही प्रतियोंमें
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