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पहली कारिकामें त्रैरूप्यका और दूसरी कारिकामें पांचरूप्यका निरसन किया गया है तथा हेतुके अन्यथानुपपत्तिलक्षण एकरूप्यका सयुक्तिक समर्थन किया गया है ।
इसी सन्दर्भ में हेत्वाभासोंका भी निरूपण है । हेतुके दोषोंको हेत्वाभास कहते हैं । बौद्ध उक्त तीन रूपोंके अभावमें तीन और नैयायिक उपर्युक्त पाँचरूपोंके अभावमें पांच हेत्वाभास मानते हैं। वे हैं-(१) असिद्ध, (२) विरुद्ध, (३) अनैकान्तिक, (४) बाधितविषय (कालात्ययापदिष्ट) और (५) सत्प्रतिपक्ष (प्रकरणसम) । जो हेतु साध्यके साथ नहीं रहता वह असिद्ध है। जो साध्याभावके ही साथ रहता है वह विरुद्ध है। जो साध्यके साथ रहता हआ साध्याभावके साथ भी रहता है वह अनैकान्तिक (व्यभिचारी) है । जो हेतु प्रत्यक्षादिप्रमाणसे बाधित है वह बाधित विषय (कालात्ययापदिष्ट) है । तथा जो हेतु अपने पक्ष के समान बलशाली प्रतिपक्ष (विरोधी हेत्वन्तर) सहित है वह सत्प्रतिपक्ष है ।
हेतुके भेदोंका कथन करते हुए धर्मभूषणने आरम्भमें उसके दो भेद बतलाये-१. विधिरूप और २. प्रतिषेधरूप । विधिरूप हेतुके भी दो भेद हैं-१. विधिसाधक और २. प्रतिषेधसाधक । इनमें प्रथमके कार्यरूप, कारणरूप, विशेषरूप, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर आदि अनेक भेद हैं । इसी तरह प्रतिषेधसाधकहेतुके स्वभावहेतु आदि भेद बतलाये हैं । प्रतिषेधरूप हेतुके भी विधिसाधक और प्रतिषेधसाधक ये दो भेद करकर उन्हें उदाहरण द्वारा निरूपित किया है । इस तरह हेतुके कुछ भेदोंको उदाहरणपूर्वक बतलाकर विस्तारसे उन्हें ज्ञात करने के लिए परीक्षामुखका निर्देश किया है ।
जैन दार्शनिक ग्रन्थोंमें निरूपित हेत्वाभासके असिद्ध, विरुद्ध, अनेकान्तिक और अकिंचित्कर इन चार भेदोंके लक्षण सोदाहरण दिये गये हैं। धर्मभूषणने इन हेतुदोषोंको अत्यन्त सरल भाषामें समझाया है।
प्रतिज्ञा और हेतुके निरूपणके बाद उदाहरण, उदाहरणाभास, प्रसंगोपात्त व्याप्य, व्यापक, उपनय, उपनयाभास, निगमन और निगमनाभासका भी कथन किया गया है।
परोक्षप्रमाणके पांचवें भेद आगमका स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि आप्तके वचनोंसे जो अर्थ (तात्पर्य) का ज्ञान होता है वह आगम है। उदाहरणके लिए 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस वाक्यसे होने वाला अर्थज्ञान । इस वाक्यसे वक्ताका तात्पर्य है कि सम्यग्दर्शन आदि तीनों मिलकर मोक्षका मार्ग है, एक-एक मार्ग (उपाय) नहीं है। इस प्रकारका यथार्थ अर्थज्ञान आगम है। जिसमें संशय आदि या प्रतारण या विसंवाद है वह अर्थज्ञान आगम नहीं है। जैसे 'धावध्वं माणवका नधास्तीरे मोदकराशयः सन्ति' इत्यादि प्रतारणवाक्यसे होनेवाला अर्थज्ञान ।
आगमके स्वरूप-सन्दर्भमें धर्मभूषणने आप्त, वाक्य और अर्थका भी स्पष्टीकरण किया है। जो सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात्कर्ता और परम हितोपदेशी है वह आप्त है। एक वाक्य के सापेक्ष तथा अन्यवाक्योंके निरपेक्ष पदोंका समदाय वाक्य है और अनेकान्तात्मक वस्तू अर्थ है। अर्थ पर्याय, गुण और द्रव्यरूप है। एक द्रव्य में क्रमसे होने वाले परिणामों (परिणमनों) को पर्याय कहते हैं। समस्त द्रव्यमें व्यापी तथा सभी पर्यायोंके साथ रहने वाले गण हैं तथा इन दोनोंका जो आश्रय है वह द्रव्य है। इन तीनोंका भी धर्मभषणने विवेचन किया है।
अन्तमें नय, नयके द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दो भेदों, सप्तभंगी, अनेकान्तमें अनेकान्तकी व्यवस्था जैसे जैन दार्शनिक तत्त्वोंका भी संक्षेपमें विशद निरूपण किया है।
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