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लंकने' जैन न्यायका दुर्भेद्य दुर्ग खड़ा किया, वह परवर्ती युगमें महान् कीर्तिस्तम्भके रूपमें प्रेरणा-स्रोत बना। इस दुर्गकी रक्षा हेतु आ० प्रभाचन्द्र, वादिदाज आदि परवर्ती तार्किक जैन आचार्योंने महान् सेनानोके रूपमें महनीय प्रयास किया और आ० श्रीयशोविजयने नव्य-न्यायकी अवच्छेदकावच्छिन्नमयी भाषाके माध्यमसे नव्ययुगोचित आग्नेयास्त्रोंका प्रयोग प्रारम्भ कर जिन-शासनकी विजय-पताका लहरानेका कार्य किया-यह सब भारतीय दार्शनिक इतिहास में चिर-स्मरणीय रहेगा। जैन तर्कशास्त्रका विशिष्ट योगदान
इस सन्दर्भमें जैनेतर दर्शनकी स्थितिका उल्लेख करना आवश्यक होगा । एक तरफ अहिंसावादी | समन्वयवादी | उदारतावादी जैन दर्शन था, दूसरी तरफ यज्ञीय हिंसाको समर्थन देने वाला मीमांसा-दर्शन, तथा परस्पर, एक दूसरेपर, कीचड़ उछालने वाली, एक दूसरेपर नास्तिकताका आरोप लगा कर स्वयंको प्रशंसनीय बताने वाली दार्शनिक दृष्टियाँ थीं। जैनोंने इन सबको जोड़ने का काम किया, तोड़नेका नहीं। इन्होंने शास्त्रचर्चा व वाद-विवादमें छलादिका प्रयोग वर्ण्य प्रतिपादित किया, और अहिंसाकी सुरक्षा एवं सत्यकी सम्पुष्टि करना लक्ष्य रख कर तर्कशास्त्रका सूत्रपात किया ।
एक-दो उदाहरण देना यहाँ पर्याप्त होंगे। मीमासकोंमें एकाध आचार्योंने इतनी असहिष्णुता प्रदर्शित की कि उन्होंने बौद्ध-प्रतिपादित 'अहिंसा'की भी कुत्तेके चमड़ेसे बनी थैलीमें रखे गौ-दुग्धकी तरह त्याज्य बताया। इसके विपरीत जैन नास्तिकोंके प्रति भी माध्यस्थ्य भाव रखनेके समर्थक थे। आ० हरिभद्रसूरिने कहा कि प्रत्येक शास्त्रकार (ऋषि) परमार्थदृष्टि वाला है, उसे हम, एकाएक, बिना परीक्षा किए, असत्सभाषी कैसे कह सकते हैं। दूसरी तरफ, वेदान्त (शांकर) के मतमें सांख्य-योग दर्शन वेद-विरुद्ध घोषित किया गया, मीमांसा व न्यायको श्रुति आभास बताया गया। कुमारिल भट्ट (मीमांसक) ने सांख्ययोग, पाशुपत, पांचरात्र, बौद्ध-सभीको वेदविरुद्ध बताया, आस्तिक दर्शनके क्षेत्रमें आ० शंकर (वेदान्त) को प्रच्छन्नबौद्ध १. न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते । (न्यायविनिश्चय, अकलंक) । २. सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं सयं । जे उ तत्थ विडस्संति, संसारे ते विडस्सिया ॥--(सूत्रकृतांग,
१।१।५०)। ३. शाक्योक्ताहिंसनं धर्मो, न वा धर्मः श्रुतत्वतः । न धर्मो, न हि पूतं स्याद् गोक्षीरं श्वदृतौ धृतम् (माध्वा
चार्यकृत जैमिनीय न्यायमाला-विस्तर, १६४१२) ॥ (द्र० मीमांसासूत्र, १।३।५७ की व्याख्या)। ४. नास्तिकेषु च माध्यस्थ्यम् (ज्ञानार्णव, १२८०, २५।१४) । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ (परमात्मद्वात्रिं
शिका-आ० अमितगतिकृत, १ श्लोक) । मेत्ति भूएसु कप्पए (उत्तराध्ययनसूत्र, ६।२)।। ५. शास्त्रकारा महात्मानः, प्रायो वीतस्पृहा भवे । सत्त्वार्थसम्प्रवृत्ताश्च, कथं तेऽयुक्तभाषिणः ।।-(शास्त्र
वार्तासमुच्चय, ३।१५)। । ६. न तया श्रुतिविरुद्धमपि कापिलं मतं श्रद्धातुं शक्यम् (ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, २।१।१) । तत्रापि श्रुति
विरोधेन प्रधानं स्वतन्त्रमेव कारणं, महदादीनि च कार्याणि अलोकवेदप्रसिद्धानि कल्प्यन्ते (शांकरभाष्य,
ब्र० सू० २।३)। ७. वैशेषिकराद्धान्तो दुयुक्तियोगाद्, वेदविरोधात् शिष्टापरिग्रहात् च नापेक्षितव्यः (ब० सू० शांकरभाष्य
२।१८) । अयं तु परमाणुकारणवादो न कश्चिदपि शिष्टैः केनचिदप्यंशेन परिगृहीत इव, इत्यत्यन्तमेव अनादरणीयो वेदवादिभिः (ब्र० स० २।१७ शांकरभाष्य)। जैमिनि (मीमांसा) का खण्डन ब्र० स०
११३३ के शांकर भाष्यमें द्रष्टव्य हैं। ८. तन्त्रवार्तिक, १।३।४ ।
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