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साहित्यिक शोध-क्षेत्रमें महनीय योगदान
डॉ० हरीन्द्र भूषण जैन, उज्जैन
जैन दर्शनके अध्ययन-अध्यापन तथा शोध-खोजके क्षेत्रमें डॉ० कोठियाजीका महनीय योगदान है। उन्होंने 'वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट' तथा 'श्रीगणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला'के माध्यमसे जैन साहित्यके प्रकाशनमें भी अभूतपूर्ण सफलता प्राप्त की। १९८० में 'वीर-सेवा-मंदिर-ट्रस्ट' द्वारा प्रकाशित 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' नामक ५४४ पृष्ठोंका विशालकाय ग्रन्थ डॉ० कोठियाके अनेक वर्षों के शोधका निचोड़ है।
सितम्बर १९८२ में भारतीय ज्ञानपीठ एवं आचार्य शान्तिसागर-ट्रस्ट द्वारा बम्बईमें आयोजित जैन विद्वत्संगोष्ठी में पठित उनके 'नियमसारकी ५३वीं गाथा और उसकी व्याख्या एवं अर्थपर अनुचिन्तन' शोर्षक निबन्धने विद्वानोंका ध्यान आकृष्ट किया, जब डॉ० कोठियाने आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेवकी व्याख्या सम्बन्धी भूलकी ओर संकेत किया। डॉ० कोठियाने अ० भा० दि० जैन विद्वत्परिषद्के अध्यक्षके रूपमें अनेक वर्षों तक परिषदको गौरवान्वित किया है।
____ मैंने डॉ० कोठियाको बहुत निकटसे देखा है। वे बड़े दयालु हैं, प्रखर तार्किक हैं, कठोर परिश्रमी हैं और साहित्य-समाराधनके लिए पूर्णतः समर्पित है। मैं उनके दीर्घ एवं यशस्वी जीवन की कामना करता हूँ।
सरल एवं स्नेही विद्वान् डॉ. रतनचन्द्र जैन, भोपाल
'न्यायाचार्य डॉ० दरबारीलालजी कोठिया' यह नाम अक्सर बचपनमें सुना करता था अपने पूज्य पिता श्री स्व० पं० बालचन्द्रजी प्रतिष्ठाचार्य लुहारीवालोंके मुखसे । पिताजी बड़े स्नेहसे यह नाम लिया करते थे। इस नामको अलंकृत करनेवाले विद्वान्की विद्वत्तासे बड़े प्रभावित थे वे । नामको बार-बार आदर पूर्वक सूननेसे मेरे मनमें भी इस अज्ञात छविके प्रति अनायास श्रद्धा घर कर गई। मन प्यासा हो गया दर्शनके लिए । विद्वानोंका कहीं समागम होता तो नजरें डॉ० दरबारीलालजी कोठियाको ढूँढ़ने लगतीं ।
किन्तु दर्शनका अवसर मिला सन् १९७३ में, जब वे पर्यषण पर्वमें भोपाल पधारे। उनके आगमनकी खबर सुनते ही मिलने के लिए दौड़ पड़ा। मन्दिरमें आपका प्रवचन चल रहा था। खादीके हिमधवल परिधानसे विभूषित आपकी देहसे सत्वगुण-सा प्रवाहित हो रहा था। मुखपर ज्ञानकी आभा और नेत्रोंमें मैत्री, प्रमोद और करुणाकी छाया । तत्त्वार्थसूत्रका अत्यन्त मार्मिक विवेचन आपके श्रीमुखसे सुनकर सम्पूर्ण श्रावकसमाज मन्त्रमुग्ध था। उन्हें पहली बार एक न्यायके आचार्य, डॉक्टर एवं प्रोफेसरसे जिनेन्द्रदेवकी वाणीका मर्म समझनेको मिला था।
उन दिनों मैं हमीदिया महाविद्यालय भोपालके संस्कृत-विभागमें कार्यरत रहते हए निश्चय और व्यवहारनयोंपर पी-एच० डी० के लिए शोधकार्य करनेकी योजना बना रहा था। सोचा ज्ञानगंगा अनायास
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