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श्रद्धेय कोठियाजी मेरे आद्य जैन-विद्यागुरु हैं। वे मेरी स्मृति-शक्ति, विनम्रता एवं सेवावृत्तिसे मुझसे अत्यधिक स्नेह करते थे। जब आप सन् १९४० में पपौरा विद्यालय छोड़कर श्री ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम मथुराके प्रधानाचार्य पदपर जा रहे थे उस समयका वह दृश्य अभी तक मेरे सम्मुख है। उनकी विदाई समस्त छात्रोंने ही नहीं, पपौरा, माढूमर एवं आसपासके निवासी जैनाजनोंने ३ मील दूर टीकमगढ़ तक जाकर साश्रुनयन होकर की थी। वह उनको लोकप्रियताका आदर्श उदाहरण था। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे अयोध्याके प्रजाजन विलख-विलख कर बनवासके समय राम और सीताको बिदाई दे रहे हों।
भले ही पपौराजी छोड देनेसे वहाँके छात्रोंकी हानि हई हो. किन्त कोठियाजीने बाहर जाकर अपनी जो प्रगति की, वह जैन-विद्याके क्षेत्रका एक स्वर्णिम अध्याय बन गया है। आचार्य उमास्वाति, समन्तभद्र विद्यानन्द एवं अन्य अनेक आचार्योंके कृतित्व एवं व्यक्तित्वपर उन्होंने गवेषणापूर्ण अभिनव प्रकाश डाला।
जैन न्यायके प्रमुख ग्रन्थ-न्यायदीपिका, प्रमाणपरीक्षा, आप्तपरीक्षा जैसे दुरुह एवं दुर्लभ ग्रन्थोंका सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद कर उनका तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया। "जैन तर्कशास्त्रमें अनुमानविचार" नामक शोध-ग्रन्थमें केवल जैन-परम्पराके अनुमानका ही विमर्श प्रदर्शित नहीं किया, अपितु भारतीय तर्कशास्त्र में प्रतिपादित अनुमानका भी विमर्श किया है। उनका यह ग्रन्थ सर्वत्र प्रशंसित हुआ है।
____डॉ० कोठिया प्रथम विद्वान् हैं जिन्होंने न्यायदीपिकाके सम्पादनमें घोर परिश्रम कर अत्याधुनिक शोध-दृष्टिपूर्वक उसका पाठालोचन एवं पाठसंशोधनके साथ प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद तथा आवश्यक शोधटिप्पणियों एवं परिशिष्टोंसे उसे सर्वोपयोगी बना दिया। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसपर उन्होंने लगभग १०० पृष्ठोंकी एक विस्तृत समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक भूमिका लिखी, जो स्वयं एक D. Litt. की उपाधिसे भी श्रेष्ठ मानी जा सकती है।
विविध स्मृति-ग्रन्थों, अभिनन्दन-ग्रन्थों तथा स्तरीय शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित शताधिक गम्भीर शोध-निबन्धोंके कारण उन्होंने दार्शनिकोंमें अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है ।
चाहे साधनविहीन छात्रोंकी सहायताका प्रश्न हो, चाहे संस्थाओंके संचालन या सहायताका प्रश्न हो, चाहे सामाजिक उत्सवोंके आयोजनका प्रश्न हो या सामयिक प्रवचनोंका। एक आवाजपर वे स्वीकृति प्रदान कर कार्य करने हेतु अग्रसर रहते है। एक बार इन पंक्तियोंका लेखक घोर आर्थिक संकटमें था। एक हस्तलिखित दुर्लभ विशाल ग्रन्थकी अत्यन्त खर्चीली फोटो-कॉपी तथा एक अन्य अप्रकाशित लघु ग्रन्थका प्रकाशन स्वयं करा पाने में असमर्थ था। अतः उन्हें एक कार्ड लिखा और उनकी ओरसे उसकी पूर्ण-व्यवस्थाका आश्वासन तुरन्त ही आ गया। संकोच अथवा प्रमादवशमें उसका लाभ नहीं उठा सका, किन्तु उनकी ओरसे व्यवस्थाको स्वीकृतिमें विलम्ब नहीं हआ।
वस्तुतः साधन-विहीनों एवं संकटापन्नोंकी सहायता करना उनका स्वभाव बन गया है । यद्यपि आज वे सेवामुक्त है, किन्तु फिर भी साहित्यिक-शोध एवं सामाजिक-कायोंसे वे मुक्त नहीं। वे आजकी पीढ़ीके पर-प्रदर्शक हैं । उनके सारस्वत-अभिनन्दनके क्रममें मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ तथा उनके स्वस्थ जीवन एवं दीर्घा ष्यकी मग कामना करता हूँ।
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