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किन्तु कुछ ऐसे भी समाज-शिल्पी है, जो अर्धमृतक संस्थाओंमें भी प्राण-संजीवनी डाल सकते हैं, उन संस्थाओंका कायाकल्प करके उनमें पुनः यौवनकी चेतना फूंक देते है । कोठियामें ऐसे ही समाज-शिल्पीके दर्शन होते हैं। गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला वाराणसीको कार्यसमितिने कोठियाको मंत्री चुना। उस समय ग्रन्थमाला अपने लटर पैडोंपर जीवन जी रही थी। मंत्रीपद कोठियाके लिए एक चनौती था। उसे उन्होंने स्वीकार किया। सबने आश्चर्य से देखा कि ग्रन्थमालामें थोड़े ही काल में जीवनके परिस्पन्द दिखाई देने लगे । ग्रन्थमालाके रीते कोषमें बैलेन्स बढ़ने लगा। रुके हुए और नये प्रकाशन होने लगे। इन्हीं दिनों गणेशवर्णी शोध संस्थानकी स्थापना हई। कोठिया संस्थाके लिये धन-संचय तभी करते हैं, जब वे स्वयं अपनी
ओरसे एक बड़ी राशि उस संस्थाको प्रदान कर देते हैं। कोठियाका सम्पर्क अनेक क्षेत्रों और संस्थाओंके साथ है और प्रायः सभीको उन्होंने दिया है। संस्थाके नवजीवन-संचारमें उनकी कर्मठता, लगन और सूझबूझके दर्शन होते हैं, तो संस्थाके लिए दिये गये दानमें उनके त्याग और निरीहवृत्तिके दर्शन होते हैं।
इसी प्रकार जब कोठियाको भा० द्वि. जैन विद्वत्परिषदका अध्यक्ष चना गया, तो कोठियाने मानों उस संस्थाको संजीवनी देकर जिला दिया। इनके कार्यकाल में विद्वत्परिषद एक सक्रिय संस्था बन गई और रचनात्मक दृष्टि लेकर चल पड़ी। इसी कालमें असहाय विद्वानोंकी सहायताके लिये विद्यानिधि योजना प्रारम्भ हुई और साधनहीन विद्वानोंके उपचार और निर्वाहके लिये कुछ मान-राशि दी जाने लगी । संस्थाकी
ओरसे कई महत्वपूर्ण प्रकाशन भी किये गये, जिनमें स्व० डाक्टर नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य द्वारा लिखित 'भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' सर्व प्रमुख है। इस ग्रन्थने सभी क्षेत्रों और वर्गोंकी प्रशंसा प्राप्त की।
बेटा सपूत निकला-कोठिया एक शान्त, निरीह और आडम्बरहीन व्यक्ति हैं । इसलिये उनका जीवन घटनाप्रधान नहीं रहा। वे मधुर भाषी होते हुए भी गम्भीर प्रकृतिके हैं। उन्होंने कभी किसीके साथ मायाचार किया हो, ऐसा देखने-सुननेमें नहीं आया। उनका दृष्टिकोण रचनात्मक रहा है । एक घटना याद आती है, जिसे मैं उनके जीवनकी एक रोचक घटना मानता हूँ। किन्तु वाह रे कोठिया ! तुमने उसका रचनात्मक उत्तर देकर समाजको महत्वपूर्ण साहित्य दिया। 'मेरी भावना' के रचयिताके रूपमें सुपरिचित पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार प्राच्य-विद्याके जाने माने विद्वान थे। जैन आचार्यों के काल-निर्णयमें उनका अभिमत अन्तिम माना जाता था। आचार्य उमास्वामी, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर आदिके सम्बन्धमें उनकी शोध-खोजको आज तक कोई चैलेंज नहीं दे सका। उनकी विद्वत्ता जितनी सुविख्यात थी, उनकी कृपणवृत्ति भी उतनी ही चचित थी। उन्होंने वीर-सेवा-मन्दिरकी स्थापना करके उसे एक शोध-संस्थानके रूपमें विकसित किया था । किन्तु उन्होंने अपने रुपये वीर-सेवा-मन्दिर में प्रदान नहीं किये थे, शेयर आदि साधनों द्वारा उसे बढ़ाते रहे। और उसका 'वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट' नामसे एक ट्रस्ट बना दिया तथा उसीके अन्तर्गत साहित्यका निर्माण एवं प्रकाशन करते रहे। इसी मध्य उन्होंने पण्डित दरबारीलाल कोठियाको धर्मपुत्र बनाने का निर्णय कर लिया और नियत तिथिपर उसकी रस्म भी अदा को गई। वाकायदा उसकी घोषणा भी हो गई। हम लोगोंने सोचा-चलो, दोनोंको ही लाभ होगा इससे। कोठियाको माल और जायदाद मिलेगी और दुढ़ापेमें बेटा-बहू उनकी सेवा करेंगे। किन्तु यह सब कुछ नहीं हो पाया । केवल मुख्तार साहबने कोठियाको अपना 'धर्मपुत्र' घोषित किया और एक माला उनके गले में पहना दी। उपस्थित पंचोंने भी मालाएं पहना दीं। न तो कोठियाको गोत्र बदलना पड़ा, न माल-जायदादके झंझटमें पड़ना पड़ा और न मुख्तार साहबको बेटे-बहूका अहसान लेना पड़ा। मामला बिलकुल साफ और बेदाग । किन्तु बेटेने बापकी आन्तरिक मंशा समझ ली। बापकी शायद मंशा यह थी कि उन्होंने माँ सरस्वतीकी जो ज्योति जलाई है,
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