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अप्रतिम प्रतिभा के धनी डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर
श्री डा० दरबारीलालजी कोठियाको मैं सन् १९३० से जानता हूँ । उस समय मैं काव्यतीर्थंकी परीक्षा देनेके लिए दीपावलीसे वैशाख तक स्याद्वादमहाविद्यालय वाराणसीमें रहा था । श्री कोठियाजी भी उसी विद्यालय में अध्ययन करते थे । बहुत शान्त और अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी छात्र थे । क्वीन्स कालेज वाराणसीकी न्यायमध्यमा तब पढ़ते थे । जहाँ अन्य छात्रोंकी चहल-पहल निरन्तर चलती रहती थी, वहाँ प्रकृत्या शान्त एवं स्वकार्य में निमग्न रहते थे । वैशाखके बाद मैं सागर आ गया तथा दि० जैन संस्कृत विद्यालय में अध्यापक हो गया, परन्तु forth अध्ययन चालू रहा और जब मैं सन् १९३६ में साहित्याचार्य के अन्तिम खंडकी परीक्षा देनेके लिए पुनः स्याद्वाद महाविद्यालय में दो माह रहा, तब आप न्यायाचार्य परीक्षा देनेकी तैयारी में संलग्न थे ।
पूज्य वर्णीजीके सत्प्रयाससे यद्यपि बनारस और सागरमें विशिष्ट विद्यालय खुल चुके थे, तथपि उनमें न्याय, व्याकरण और साहित्य आदि विषयोंके पढ़नेके लिए विद्यालय- संचालकोंको ब्राह्मण विद्वानोंका मुखापेक्षी होना पड़ता था । वर्णीजीकी भावना थी कि हमारे छात्र भी इन विषयोंके विद्वान् बनकर इस परमुखापेक्षिताको बन्द करें । फलतः पं० बंशीधर जी बीनाने व्याकरणाचार्य, मैंने साहित्याचार्य, पं० महेन्द्रकुमारजी और कोठियाजीने न्यायाचार्य परीक्षा पास की। पीछे चलकर अन्य अनेक विद्वान् आचार्य - परीक्षा पास हुए । साथ ही एम० ए० आदि परीक्षाओं में भी उत्तीर्ण हुए। इन सबको देखकर वर्णीजी मन-ही-मन बड़े प्रसन्न होते थे । और सचमुच ही इन विद्वानोंने बनारस और सागरके विद्यालयों में कार्यरत हो अपने-अपने विषयों में परमुखापेक्षिताको दूर कर दिया ।
कोठियाजी प्रारम्भसे ही अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे । वे जहाँ भी रहे, वहीं अपने कार्यकी गरिमा स्थापित करते रहे । जिस प्रकार पानी स्वयं अपना मार्ग बनाता हुआ आगे बढ़ता है, उसी प्रकार कोठियाजी भी अपना मार्ग स्वयं बनाते हुए आगे बढ़ते रहे । प्रारम्भमें वे वीर विद्यालय पपौरा, फिर ऋषभ ब्रह्मचर्या - श्रम मथुरा, पश्चात् वीर सेवा - मन्दिर सरसावा, तदनन्तर समन्तभद्र संस्कृत विद्यालय दिल्ली, फिर जैन कालेज बड़ौत और पश्चात् काशी हिन्दू विश्व विद्यालय वाराणसी में जैन दर्शनके रीडर होकर कार्यविरत हुए । एक लघुका विद्यालयका अध्यापक बढ़ते-बढ़ते विश्वविद्यालयका रीडर बना, यह कम पुरुषार्थकी बात नहीं है । न्यायाचार्य होनेके बाद आपने एम० ए० परीक्षा पास की और उसके बाद "जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार" नामक विषय पर शोध-प्रबन्ध लिखकर पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की ।
आपकी साहित्य-सृजनको अभिरुचि प्रारम्भसे ही थी । फिर स्व० जुगलकिशोरजी मुख्त्यार के सांनिध्य में रहने से वह और भी अधिक वृद्धिगत हो गई। सरसावामें रहते हुए आपने आध्यात्मकमलमार्तण्ड, न्यायदीपिका, आप्तपरीक्षा, श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र, शासनचतुस्त्रिंशिकाका संपादन और अनुवाद किया। पश्चात् वाराणसीमें रहकर स्याद्वादसिद्धि, प्रमाणप्रमेयकलिका, द्रव्यसंग्रह, समाधिमरणोत्साहदीपक, प्रमाणपरीक्षा, जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान विचार तथा जैन दर्शनका प्रमाण शास्त्र परिशीलन ग्रन्थोंकी रचना और प्रकाशन किया। आपका प्रमाण-परीक्षा ग्रन्थ उत्तर प्रदेश शासनकी ओरसे पुरस्कृत हो चुका है। आपके गवेषणात्मक लेख सामाजिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं ।
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