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प्रकाशित हुए । इन ग्रन्थोंको प्रस्तावनाओंके अतिरिक्त कोठियाजीने आप्तपरीक्षा (१९४९), देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा (१९६७) और युक्त्यनुशासन (१९६९) की प्रस्तावनाएँ भी लिखीं हैं । कोठियाजीकी उपरोक्त प्रस्तावनाओंमें युक्तियुक्त विवेचन, तुलनात्मक अध्ययन, ऐतिहासिक ऊहापोह एवं समीक्षक दृष्टि परिलक्षित हैं। 'जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान विचार' उनकी मौलिक कृति है, जो १९६९ में प्रकाशित हुई। विगत ४० वर्षोंमें प्रकाशित उनके अधिक महत्वपूर्ण निबन्धोंका संशोधित एवं सुसम्पादित संकलन 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' १९८० में प्रकाशित हुआ है, जिसमें इस क्षेत्रमें उनके गंभीर अध्ययन, शोध-खोज, अनुसन्धान एवं अन्वेषणका नवनीत समाविष्ट है। इस संकलनमें स्वामि समन्तभद्र विषयक जो लगभग एक दर्जन लेख हैं उनसे उक्त आचार्यके व्यक्तित्व, कृतित्त्व, पूर्वापर एवं समयादिके निर्धारणमें तथा कई विद्वानों द्वारा जो तत्संबंधी भ्रांतियाँ प्रचारित की जा रहीं थीं उनके निरसनमें बड़ी सहायता मिली है । अन्य लेख भी अतीव उपयोगी हैं। वर्तमान एवं भावी शोधार्थियों के लिए तत्तद् विषयोंमें कोठियाजीका साहित्य प्रेरक एवं दिशादर्शक ही नहीं, अनिवार्यतः अध्ययनीय है, प्रमाणकोटिका है । वस्तुतः जैन न्यायशास्त्रके आधुनिक युगीन विकासकी दिशामें विद्वद्वर्य कोठियाजीका योगदान पर्याप्त महत्त्वपूर्ण एवं श्लाघनीय है। उसका सम्यक् मूल्यांकन तो कोई न्यायशास्त्र-मर्मज्ञ प्रौढ़ विद्वान् ही कर सकता है।
कोठियाजीकी साहित्य-साधना न्यायशास्त्र तक ही सीमित नहीं रही-अध्यात्म-कमलमार्तण्ड, श्रीपुर पार्श्वनाथस्तोत्र, शासनचतुश्त्रिशिका, द्रव्यसंग्रह, समाधि-मरणोत्साहदीपक जैसी उनकी कई अन्य कृतियाँ तथा विविध विषयक फुटकर लेख भी है । साथ ही साथ वह सुवक्ता एवं प्रवचनकार भी हैं । अध्यापन, अनुसंधान-निर्देशन, पत्रकारिता, संस्था-संचालन, संगठन, समाजसेवा आदि उनके व्यक्तित्वके कई अन्य पक्ष भी हैं । अपने वैदुष्यके कारण वह जैनेतर विद्वानोंकी प्रशंसा एवं आदरके पात्र हुए हैं। वर्तमान जैन विद्वत्जगतके वह एक चकमते हुए सितारे हैं।
शुभ्र खादी परिधानमें वेष्ठित, मझौला कद, छरहरी देह, गौरवर्ण, सस्मित वदन, सौम्य मुद्रा, स्वाभिमानपूर्ण तेजस्विता, कर्मठता, परिश्रमशीलता, मधुरशिष्ट व्यवहार, सरल सात्विक जीवन एवं सम्यक धार्मिकता कोठियाजीकी चारित्रिक विशेषताएँ हैं। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती चमेलीदेवी भी विदूषी है, और साथ ही बड़ी सौम्य, शान्त, शिष्ट सेवाभावी कर्मठ सदगहिणी हैं।
बन्धुवर कोठियाजीके साथ हमारे सम्बन्ध लगभग चालीस वर्षसे हैं, और प्रारम्भसे अद्यावधि अतीव सौहार्द्रपूर्ण एवं स्नेहिल रहते आए हैं। वह हमारे प्रायः समवयस्क हैं और साहित्यसेवाके क्षेत्रमें भी उनकी
और हमारी समसामयिकता प्रारम्भसे ही रही आई है। कई क्षेत्रोंमें, विशेषकर वीरसेवामन्दिर तथा स्व० मुख्तार सा० द्वारा संस्थापित वीरसेवामन्दिरट्रस्टकी प्रवृत्तियोंमें, हम उनके सहयोगी रहते आए हैं, अन्य कई संस्थाओं एवं सांस्कृतिक संगठनों या प्रवृत्तियोंमें भी हम साथी रहें है। वह अपने विषयके विशेषज्ञ हैं, अतएव हम अपने अन्वेषणोंमें उनको प्रमाणकोटिके संदर्भोमें प्रस्तुत करते रहे हैं, और हमारा जो विशिष्ट क्षेत्र है उससे सम्बन्धित हमारे मन्तव्योंका वह भी उपयोग करते रहें हैं । कतिपय नवपीढ़ीके विद्वान्, न जाने क्यों, इस स्वस्थ आदान-प्रदानसे कतराते हैं वे अपने विद्वानोंके किए गए कार्यका लाभ तो उठा लेंगे, किन्तु उनका आभार मानने या नामोल्लेख करने में भी शायद उनकी अहमन्यता आड़े आ जाती है। यों भाई कोठियाजीके साथ यदा-कदा मतभेद भी हुए है, किन्तु उनको लेकर पारस्परिक सद्भाव एवं स्नेहमें कभी कोई अन्तर नहीं आया । उनको मैत्रीसे हम सदैव गौरवान्वित रहे ।
___ डॉ० कोठियाजीका व्यक्तित्व एवं कृतित्व वस्तुतः अभिनन्दनीय है। हमें जब यह सूचना प्राप्त हुई तो अत्यन्त प्रसन्नता हुई। किन्तु भाई पं० बाबूलाल फाल्गुल्लका यह आग्रहपूर्ण आदेश भी साथ ही मिला
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